चौमासा मीमांसा: बदलते मॉनसून के लक्षण

(यह लेख १० जुलाई को दैनिक भास्कर की रविवारी मैगजीन में सम्पादित रूप में छपा है|)

हमारे भविष्य में जितनी बाढ़ है उतना ही सूखा भी। पूर्वानुमान लगाना दूभर होता जा रहा है

सोपान जोशी

सोमवार 11 जुलाई को आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी है। पंचांग में देवशयनी एकादशी कहलाती है और घरपरिवार में देवसोनी ग्यारस। भगवान विष्णु इस दिन राजा बलि को दिए वचन का पालन करते हुए चार महीने के लिए सुतल में उनके द्वार पर चले जाएंगे। चार दिन बाद सावन लग जाएगा। देवतागण हरि का अनुसरण करते हुए चतुर्मास सो के बिताएंगे। तब तक के लिए पारिवारिक मंगल कार्य और उत्सव नहीं होंगे। दीवाली के बाद, कार्तिक में शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवताओं का अलार्म बजेगा। देवउठनी ग्यारस को।

हमारे यहाँ सबसे महत्व की बातें धार्मिक अनुष्ठान और कथाओं में बुनी जाती हैं। उन्हे जानने के लिए कोई डिग्री नहीं चाहिए रहती। अनपढ़ भी चंद्रमा को देख कर समय का हिसाब रख सकता है। रुपए पैसे से ले कर व्यापार और संबंधव्यवहार के संस्कार धार्मिक पर्वो में टंके हुए हैं। फिर पुराण उठा लें चाहे लोकगीत।

हमारी पंचांग का सबसे अनूठा समय है चौमासा। कुल जितना पानी बरसता है हमारे यहाँ उसका 70-90 प्रतिशत चौमासे में ही गिर जाता है। जिस देश में ज्यादातर लोग जमीन जोतते रहे हैं उसमें चौमासे की उपज से ही साल भर का काम चलता है। केवल किसानों का ही नहीं, कारीगरों और व्यापारीयों का, और उनसे वसूले कर पर चलने वाले राजाओं का भी। साल भर का पानी और भोजन, पशुओं का चारा। वर्ष शब्द ही वर्षा से आता है, और बरस आता है बरसने से। चौमासा इस उपमहाद्वीप में जीवन का आधार रहा है। हमारा प्राण है।

इस समय अगर हमारे देवता हमसे पूजाअर्चना का समय माँगे तो मुश्किल हो जाए। इस समय हर हाथ खेत में चाहिए रहता था। केवल खेती के लिए ही नहीं, साल भर के जल प्रबंध के लिए सब को जल स्रोतों पर मेहनत करनी होती थी। व्यापारी समाजों में भी चौमासे का बड़ा महत्व रहा है। यह समय संयम और अनुशासन का रहा है, फिर चाहे वह वैष्णव बनिया समाज हो चाहे जैन। भक्ति तो संभव है चौमासे में परंतु धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठान के लिए जैसी तैयारी चाहिए उससे खेती का बड़ा नुकसान होता। क्योंकि हमारे ही देवता हैं तो हमारी मजबूरी भी जानते हैं। इसलिए सो जाते हैं चार महीने हमे बारिश से अपना साल भर सींचने की आज़ादी दे कर। लेकिन चौमासे की बारिश में जो उलटफेर हो रहा है उससे तो भगवान विष्णु की भी नींद उड़ जाएगी।

umbrella

अगर यह ठीक से समझना हो तो पूछिए भूपेन्द्ररनाथ गोस्वामी से, जो निदेशक हैं पुणे में मौसम विभाग के उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान के। उनका खास काम है चौमासे की बारिश का पूर्वानुमान लगाना। बहुत मुश्किल काम है। विज्ञान की अनेक विधाओ में मौसम सबसे कठिन शास्त्र है। क्योंकि विज्ञान का तरीका है नियतांको को सामने रख परिवर्तीय को नापना। जो स्थिर है उससे वह जानना जो चंचल है। जमीन (ठोस) और पानी (तरल) को पढ़ना आसान है क्योंकि वह स्थिर हैं। वायुमंडल में तो सब कुछ चंचल होता है और सब कुछ तीन आयामो मे चलायमान रहता है। फिर प्रकृति नें हमे धरती और पानी पर चलनेतैरने लायक तो बनाया है पर उड़ने लायक नहीं। आकाश में जा कर हवा की गति और दिशा जानना बहुत मँहगा और दुर्गम होता है।

यहाँ से कठिनाई बढ़नी शुरू होती है। उष्ण कटिबंध इलाके में मौसम का पूर्वानुमान लगाना आमतौर पर बहुत ही कठिन होता है। कटिबंधीय हवाओं का स्वभाव कुछ वैसा होता है जैसा तुलसीदासजी ने खल की प्रीति को बताया है – वह स्थिर नहीं होतीं। गोस्वामीजी का (मौसम वाले, रामायण वाले नहीं) काम है इस खल की प्रीति का पूर्वानुमान लगाना। भूमध्य रेखा के आसपास सूर्य का प्रसाद कुछ ज्यादा ही मिलता है। यह गर्मी धरती और समुद्र से हवा में जाती है। गर्म हवाएं तेजी से सीधी ऊपर की ओर जाती हैं। कब कहाँ चली जाए कह नहीं सकते।

फिर भारतीय उपमहाद्वीप का भूगोल कुछ अजब ही है। एक तो हमारे यहाँ दुनिया का सबसे शक्तिशाली मॉनसून आता है – मॉनसून के एक आम दिन में 7,500 करोड़ टन वाष्प हवाओं के साथ हमारे पश्चिमी तट को लांधती है, जिसमे से 2,500 करोड़ टन रोज पानी के रूप में बरस जाता है। कटिबंध के कई और इलाके हैं जहाँ मॉनसून आता है लेकिन इतना पानी और इतना वेग कहीं नहीं होता। यह शक्तिशाली मॉनसून जा भिड़ता है दुनिया की सबसे ऊँची दीवार से जो हिमालय के रूप में हमारे उत्तर में खड़ी है। इस दीवार के पार है तिब्बत का पठार। लाखों साल पहले यह एशिया का दक्षिणी तट हुआ करता था। भारतीय उपमहाद्वीप से टकराकर यह समुद्रतल से पाँच किलोमीटर ऊपर उठ गया है।

अगर हिमालय और तिब्बत जरा भी गर्म होते हैं तो उनकी हवाएं वायुमंडल में बहुत ऊपर पहुँचती हैं। इससे वहाँ एक खालीपन बन जाता है जिसे मौसम वाले डिप्रेशन कहते हैं। वैज्ञानिक अब मानते हैं कि यह डिप्रेशन ही अरब की खाड़ी और भारतीय महासागर से इतना ताकतवर मॉनसून हमारी तरफ़ खींच लाता है।

लाजिमी है कि जलवायु में होने वाले परिवर्तन मॉनसून पर असर डालेंगे। पर यह असर क्या होगा? पिछले कई साल से पुणे में गोस्वामी और उनके सहयोगी इसपर शोध कर रहे हैं। इस विषय पर उनका पहला बड़ा शोधपत्र छह साल पहले छपा था। उसमें एक शताब्दी से ज्यादा के मॉनसून के आंकड़ो का विश्लेषण था। उससे कई तथ्य सामने आए।

जैसे एक यह की घमासान बारिश ज्यादा होने लगी है। 15 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश वाले दिनों में पिछले 20 साल में बढ़ोतरी हुई है। यही नहीं ऐसे दिनों में जितना पानी गिरता है वह भी बहुत बढ़ गया है। बादलों को फटने की आदत सी हो रही है। पहले से कहीं प्रचंड हो कर। तो ऐसा मान लेना चाहिए कि मॉनसून की बारिश बढ़ रही है।

कतई नहीं। गोस्वामी को यह भी पता लगा कि 10 से.मी. से कम बारिश के दिन घटते जा रहे हैं। जो इज़ाफ़ा बादलों के फटने से होता है वह हल्की बारिश के कम होने से बराबर हो जाता है। कुल जितना पानी गिरता है उसकी औसत जस की तस है। लेकिन इससे हमारी समृद्धि की औसत बिगड़ जाएगी। गोस्वामी वह बताते हैं जो हर किसान आपको बता सकता है: तेज बारिश से बाढ़ और प्राकृतिक विपदाएं पहले से ज़्यादा होंगी। और हल्की बरसात ना होने से सूखा और अकाल। क्योंकि तेज बरसात का पानी ठहरता नहीं है। रिमझिम वर्षा का पानी धरती सोख लेती है और भूजल में वृद्धि होती है।

इसमे टेड़ और पैदा होगी क्योंकि हमे पता भी नहीं चलेगा कि बाढ़ कब और कहाँ आएगी और कहाँ अकाल। गोस्वामी का कहना है कि बरसात के अतिवाद से उसका पूर्वानुमान लगाना असंभव होता जा रहा है। घनघोर घटा बहुत जल्दी बनती है और निरीक्षण करने के पहले ही निपट जाती है।

पुणे के मौसमशास्त्रीयो ने पूर्वानुमान में होने वाली गलतीयों का हिसाब किया। इसके लिए उन्होने ऐसे सालों की तुलना की जब बारिश का नाप और बंटवारा एक सा था। तुलना मे दिखा कि पूर्वानुमान मे होने वाली चूक बहुत जल्दी दुगुनी हो रही थी। अगर 25 बरस पहले अनुमानित बारिश से दुगुनी या आधी बारिश होने मे औसतन तीन दिन लगते थे तो अब डेढ़ ही दिन लगते हैं।

बारिश का अनुमान लगाना लगभग असंभव होता जा रहा है,” गोस्वामी कहते हैं। अतिरेक बारिश से हवा में दबाव बदलता है। और यह तो हम जानते ही हैं कि दबाव से ही बादल आगे बढ़ते हैं। गोस्वामी कहते हैं: “अगर हम अतिरेक बारिश का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते तो दबाव का भी नहीं लगा पाएंगे।” मॉनसून में तो उलटफेर तो हो ही रही है साथ ही हमारी समझ में भी अनिश्चय बढ़ता जा रहा है।

जो निश्चित तौर पर पता चल रहा है वह और चिंताजनक है। माधवन राजीवन नायर जाने माने वैज्ञनिक हैं भारत मौसम विज्ञान विभाग के और आजकल तिरुपति में राष्ट्रीय वायुमंडल शोध प्रयोगशाला में काम करते हैं। उन्होने भी जलवायु परिवर्तन के मॉनसून पर प्रभाव पर शोध किया है जो दिखाता है कि हवा में दबाव के घटने से जो डिप्रेशन बनते हैं वह घट रहे हैं। उनका अनुमान है कि यही कारण है कि छत्तिसगढ़ और झारखंड में बारिश कम हो रही है और वहाँ मॉनसून के पहुँचने में औसतन पाँच दिन की देर होने लगी है। केरल पर भी पानी कम बरसने लगा है जबकि महाराष्ट्र पर बारिश बढ़ी है।

राजीवन का शोध यह भी दिखलाता है कि जुलाई के महीने में बारिश कम होने लगी है और अगस्त में बढ़ी है। इसका हमारी खेती पर प्रभाव निश्चित है। क्या किसानों को बुवाई का समय बदल देना चाहिए? हमारे यहाँ खेती का कॅलेंडर परंपरा और धार्मिक पर्वो में गुथा हुआ है, इतना कि यह कहना मुश्किल है कि कृषि की तारीखों और पर्वों में क्या अंतर है। क्या हमारे पंचांग में भी यह बदलाव लाना चाहिए? क्या भगवान विष्णु को राजा बलि के द्वार पर जाने की तिथि बदलनी चाहिए? बदलेंगे तो भी किस आधार पर? किस मौसम मॉडल पर विश्वास करेंगे? हर मॉडल अलग अनुमान लगा रहा है क्योंकि वायुमंडल की समझ हमारी बहुत कमजोर है।

मॉनसून पर दुनिया भर में हो रहे जलवायु परिवर्तन का असर होता है। परंतु वह असर क्या होगा कह नहीं सकते। मसलन विश्व भर का तापमान बढ़ने से भाप ज्यादा बनेगी और बारिश भी ज्यादा होगी ऐसा प्रतीत होता है। पर उत्तरी ध्रुव पर जमी बरफ़ के पिघलने से क्या होगा? ध्रुवीय बरफ़ तो समुद्र में है सो बहुत फ़र्क नहीं होगा। पर ग्रीनलॅण्ड की बरफ़ तो मीठे पानी की है और जमीन के ऊपर जमी है। वह पिघल गयी तो उत्तरी अंध महासागर में खूब सारा मीठा जल आ जाएगा जिसका घनत्व खारे पानी से कम होता है। जाहिर है इससे समुद्र की धाराओं का प्रभाव भी बदल जाएगा और वहाँ का समुद्र ठंडा पड़ेगा। गोस्वामी को विश्वास है कि इससे मॉनसून कमजोर होगा। लेकिन फिर यह भी है कि बंगाल की खाड़ी का तापमान बाकी समुद्र की तुलना में और तेजी से उठ रहा है। “सारे जलवायु मॉडल अपूर्ण और अविश्वसनीय हैं,” गोस्वामी कहते हैं।

मॉडलो को दुरुस्त करने के लिए आज के कम्प्यूटरो की तुलना में कहीं ज्यादा शक्तिशाली महाकम्प्यूटर चाहिए। एक और जरूरत है कुशल और प्रतिभाशाली मौसम वैज्ञानिकों की। और साथ ही बहुत सारी मौसमी वेधशालाओं की जो जलवायु के आंकड़े इकट्ठे कर सके, खासकर समुद्र के ऊपर से। क्योंकि समुद्र के ऊपर बादलों का स्वरूप क्या होता है यह हमें अंतरिक्ष में घूमते हुए उपग्रहों से नहीं पता चल सकता। विज्ञान उसका पूर्वनुमान नहीं लगा सकता जिसके बुनियादी आंकड़े भी ना हों।

इस सब के लिए बहुत सारा धन चाहिए। क्या सरकार खर्च करेगी? क्या खर्च करना चाहिए? जवाब बहुत सरल है और गए बरस अगस्त में रिज़र्व बैंक के गवर्नर दुवुरी सुब्बाराव नें दिया था। उन्होंने कहा कि उनकी मुद्रा नीति की सफलता मॉनसून पर निर्भर होगी। अभी 14 जून को उन्होने फिर कहा कि मुद्रास्फीति की दर पॅट्रोलियम के अंतराष्ट्रीय दाम और मॉनसून पर निरभर है। माकपा के चतुरानन मिश्र की अभी हाल ही में मृत्यु हुई है। उन्होंने एक बार कहा था कि भारत के कृषि मंत्री वे नहीं हैं, मॉनसून है।

हमारी अर्थव्यवस्था जिस तेल और पानी से चलती है वह हमारी सीमा के बाहर से आते हैं। भारत की आर्थिक आत्मनिर्भरता में सबसे महत्वपूर्ण रोड़े यही माने नाते हैं। जो भारत की आर्थिक वृद्धि का बातबात में जिक्र करते हैं उनके लिए मॉनसून पाँव की बेड़ी है जो कटती ही नहीं। मॉनसून पर निर्भरता हमारे पिछड़ेपन का कारण बताया जाता है, अखबारों में और सरकारी दस्तावेजों में भी। बड़ेबड़े बाँध बनाने की वजह बतलाई जाती है मॉनसून से मुक्ति। जैसे चौमासा कोई गाँव से आया गरीब संबंधी है जिससे हमारे नवधनाड्य समाज को शर्म आती है।

पर यह नया समाज मॉनसून के बारे में अपने ही पुराने समाज से बहुत कुछ सीख सकता है। जैसे मॉनसून को मजबूरी नहीं मानना। उसे चौमासे का सुअवसर मानना जिसके बिना हमारा जीवन चल ही नहीं सकता। अगर एक बार यह मान लें तो फिर राह आसान होगी। फिर हमे समझ में आएगा कैसे इतनी सहस्त्राब्दीयो से इस उपमहाद्वीप में लोग जीते आए है, समृद्ध बने हैं, खुशहाल रहे हैं।

कयोंकि हमारे समाजों नें अपने गाँवशहर, खेतखलिहान, घरद्वार, यहाँ तक कि अपना मन भी चौमासे के हिसाब से ढाला है। चाहे राजस्थान में थार का रेगिस्तान हो या उत्तर बिहार के बाढ़ से पनपे इलाके। लोग आठ महीने जमीन का इस्तेमाल करते हुए चौमासे का ध्यान रखते थे। बारिश का पानी कैसे बहेगा इससे जमीन की मिल्कियत तय होती थी। जिन आँकड़ों के बिना मौसम शास्त्री अपने आप को मजबूर पाते हैं वह आँकड़े, कई सौ सालों के, लोकगीत और कहावतों में पिरोए जाते थे। चौमासे के अलग राग थे, और चौमासे से लोगों के जीवन में राग था। अनपढ़ भी जानता था बादलों का स्वभाव। हर कोई बादलों को ध्यान से देखताबूझता था।

यह सबक आधुनिक इंजीनियरी ने भुला दिया है। हमने अपने शहर जल स्रोतों के ऊपर या उनके रास्ते में बनाने शुरू कर दिए। बिहार में कोसी की बाढ़ को तटबंधों में रोकने की कवायद चली। जितना पैसा बाढ़ के बचाव पर खर्च हुआ उतना ही बाढ़ प्रभावित इलाका बढ़ता गया। मुम्बई मे एक दिन में गिरे एक मीटर पानी ने शहर का तीयापांचा खोल कर मिट्ठी नदी का रास्ता याद दिला दिया था 26 जुलाई 2005 को। क्योंकि हमारे शहर दूसरे शहरोंगाँवों का पानी छीन लाते हैं इसलिए वे ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं। पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं।

इस चौमासे में भी कई शहर पानी में डूबेंगे। उन्हे प्राकृतिक विपदा बताया जाएगा। पर जलवायु परिवर्तन से अतिरेक होते मॉनसून का प्रकोप तो बढ़ेगा ही। हमें भी बदलना पढ़ेगा। समझदारी में नहीं तो फिर मजबूरी में।

उठो ज्ञानी खेत संभालो बह निसरेगा पानी।



Categories: Climate Change

Tags: , , , , , , , , , , , ,

1 reply

  1. काश समझ सके जमाना,
    हुनर पुरानों के।
    वरना खाक में मिल जाएगी हस्ती,
    और हाथ मलते रहे जाओगे,
    देख हाल रीते खजानों के।।

Leave a comment