रतन-तलाई से गाद-मुक्ति का दिन

[कुमार गंधर्व जन्म शति – 8 अप्रैल – 1924-2024]

[संपादित रूप में यह लेख इंदौर के दैनिक प्रभात किरण में 8 अप्रैल 2024 को छपा है]

सोपान जोशी

उम्र चौबीस की भी नहीं थी। जब वह युवक मालवा आया तब उसके पास गुजारा चलाने जितना जरा-सा सामान था। बायें फेफड़े में तपेदिक का जानलेवा रोग था। साथ में थी चिंता में गलती हुई पत्नी और एक बहुत बड़े सपने की लाश।

वह सपना जो सात साल के शिवपुत्र कोमकली में सूरज के तेज की तरह फूटा था, जब वह बालक अचानक ही गाने लगा था। जब उसकी संगीत की प्रतिभा से सभी स्तब्ध रह गये थे। वह सपना जिसे देख के कर्नाटक के एक धर्मगुरु ने उसे एक नया नाम दिया था – कुमार गंधर्व। वह सपना जो हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कई उस्तादों ने मुंबई में कुमार गंधर्व को जवान होते हुए देखा था, सुना भी था। वह सब बीती बात हो चुकी थी।

उनकी शादी को चार महीने ही हुए थे। एक लंबे संघर्ष के बाद देश आजाद हुआ था। लेकिन अगस्त 1947 में कोलकाता में एक सभा में गाते हुए तेईस साल के कुमार गंधर्व खाँसते-खाँसते ढेर हो गये थे। मुँह से खून आ रहा था। मुंबई लौटे तो डॉक्टर ने बताया टी.बी. है। उस समय तपेदिक की बढ़िया दवाएँ ईजाद नहीं हुई थीं। यह मौत का पैगाम था, गाने की तो बात ही छोड़ दीजिए। बीमार फेफड़े से गाया नहीं जाता।

जब इंदौर से कुमार गंधर्व 30 जनवरी 1948 को देवास पहुँचे, तब एक भुतहे शहर में सड़क पर कोई पूछने वाला तक नहीं था। रेडियो पर खबर सुनी कि महात्मा गांधी की हत्या हुई है। आगे चल के शायद गोरखनाथ का यह भजन गाते हुए कुमार गंधर्व को यह नजारा याद रहा हो – “शून्य गढ़ शहर, शहर घर बस्ती, कौन सूता, कौन जागे है…”

लगभग पाँच साल तक कुमार गंधर्व बिस्तर पर पड़े रहे। डॉक्टर ने कहा था कि शरीर को आराम देने के अलावा कोई चारा नहीं है। कुछ नये ऐन्टीबायोटिक भी आ गये थे। धीरे-धीरे सेहत सुधरने लगी। किंतु जब उनका शरीर सो रहा था, तब भी उनका मानस चेतन था।

शास्त्रीय संगीत में खुद को प्रतिष्ठित करने का सपना टूट चुका था। पर सफलता के इस सपने को तो युवक कुमार गंधर्व ने पहले ही तज दिया था, जब उनकी प्रतिभा की लहर संगीत के सागर में ऊँची उठने लगी थी। एक दिन 1945 में मुंबई के गिरगाँव में पैदल चलते-चलते कुमार सड़क पर ही सुबक-सुबक के रोने लगे थे। जोर-जोर से अपने आप को उलाहना देने लगे थे, कि यह उनका संगीत नहीं है।

जिसने सात साल की उम्र से असीम प्रशंसा पायी हो, जिस पर बचपन में ही सुनने वालों ने रुपये-पैसे की बौछार की हो, उसके सफलता के मानक बाजारू नहीं होते हैं। उसे वे लोग समझ नहीं सकते जो अपनी असुरक्षा के तेल में दोयमता का अचार डालते हैं, फिर उसका प्रचार भी खुद ही करते हैं। शास्त्रीय संगीत को कैरियर बनाने का विचार तो कुमार गंधर्व इक्कीस की आयु में ही छोड़ चुके थे। टी.बी. होने के दो साल पहले!

क्योंकि सुनने से ही गुरु ज्ञानी होता है

देवास में किराये के घर में पड़े हुए उनकी आवाज बंद थी। पर उनकी अद्भुत प्रतिभा का सत् उनके गले में नहीं, उनके कान में था। उस कान में जिससे वे नौ साल की उम्र में बड़े-बड़े उस्तादों की गायकी उन्हीं के घराने के अंदाज में पहचान लेते थे। उस कान में जिस पर पड़ा हुआ संगीत वे हू-ब-हू अपने गले से निकाल देते थे। जैसे लिखने से पहले पढ़ना आता है, वैसे ही गाने से पहले सुनना आता है। तपेदिक ने कुमार गंधर्व का बाँया फेफड़ा पकड़ा था, उनका कान नहीं। इस कान पर मालवा के लोक गीत पड़े।

पास के एक गाँव का रास्ता उनके घर के बगल से जाता था। इस पर चलने वाली बैलगाड़ियों में बैठी ग्रामीण महिलाएँ अपने गीत मालवी में गाती थीं। लोक संस्कृति में कला कैरियर नहीं होता। किसी दूसरे के सामने उसकी नुमाइश नहीं की जाती। उसके उपभोक्ता नहीं होते, न उत्पादक होते हैं। न तो उसके शास्त्री होते हैं और न समालोचक ही!

सहज सामाजिक जीवन में संगीत ही नहीं, हर तरह की कला जीवन जीने का साधन है। कला के बिना साधारण समाज जी ही नहीं सकता। लोक संस्कृति में हर व्यक्ति कलाकार होता है, चाहे वह कोई गृहणी हो और या बुनकर, किसान हो या बढ़ई!

कुमार गंधर्व का गहन शास्त्रीय प्रशिक्षण जरूर हुआ। पर उनका मानस, उनका कान किसी कोचिंग इन्स्टीट्यूट के प्रतियोगिता दर्पण में नहीं ढला था। बचपन में कोई चार दिन स्कूल जाने के बाद अपनी शिक्षिका माँ के सामने उन्होंने अपना बस्ता पटक दिया था। स्कूली शिक्षा की चक्की में अपनी प्रतिभा के दानों को पीस के आटा बनाने का खतरा नन्हें शिवपुत्र को भी पता था। अपनी खास प्रतिभा को उन्होंने आम समाज से अलग नहीं किया।

तभी तो लगभग मृत्यु शैय्या पर पड़े हुए भी उन्हें मालवा की साधारण महिलाओं का संगीत सुनाई दिया। एक बया पक्षी का घोंसला बनाते हुए किया हुआ कलरव उनके लिए प्रेरणा बना। जब कोई अनाम जोगी कबीर का भजन ‘सुनता है गुरु ज्ञानी’ गाता हुआ उनकी गली से निकला, तब कुमार गंधर्व के कान उसे ध्यान से सुन रहे थे।

इन सभी के लिए कला जीने का तरीका था, कोई कैरियर या व्यापार नहीं। किंतु कितने कलाकार इस सहज जीवन और इसका कला में प्रेरणा पाते हैं! वह भी गहन शास्त्रीय प्रशिक्षण पाये हुए कलाकार!

आज सहजता और लोक संस्कृति उपहास और तिरस्कार के पात्र बन चुके हैं। भारत की परिभाषा गढ़ने वाले अनेक विद्वान सोशल मीडिया के बाजार में घूमते मिलते हैं, जिनका भारत की सहज लोक संस्कृति के खाते में अकाउन्ट तक नहीं खुला है।

गैरगम्भीर मालव भूमि का गोद लिया सपूत

कर्नाटक में जन्मे और मुंबई में तैयार हुए कुमार गंधर्व ने न केवल मालवा की इस सहज संस्कृति को पहचाना, बल्कि अपना जीवन उसके हवाले कर दिया। यही वह मौलिकता थी जिसकी वजह से देवास-इंदौर ही नहीं, सारा मालवा कुमार गंधर्व का कायल हो गया था। फिर देश और दुनिया भी!

विष्णु चिंचालकर जितने सहज-सुशील व्यक्ति थे, उतने ही मौलिक कलाकार भी थे। तभी तो सारा इंदौर उन्हें केवल गुरुजी के नाम से पुकारता था। उनसे सात साल छोटे उनके सखा कुमार गंधर्व के बारे में जो गुरुजी ने कहा है, वह दुहराने लायक है। उन्होंने लिखा कि कुमार उनके गुरु हैं, हालाँकि खुद कुमार यह नहीं जानते। संपादक राहुल बारपुते भी अपने दोस्त कुमार के बारे में ऐसे ही बात करते थे।

अगर कुमार गंधर्व मालवा के प्रति समर्पित हुए, तो मालवा ने उन्हें उससे भी अधिक स्नेह दिया। देवास-इंदौर के सांस्कृतिक आकाश ने उन्हें अपना सबसे चमकदार सितारा माना।

सन् 1948 में कुमार गंधर्व इंदौर-देवास इसलिए आये थे कि वहाँ की सूखी हवा उनके तपेदिक-ग्रस्त फेफड़े के लिए मुंबई की ऊमस से बेहतर थी। मालवा की हवा उस बीमार फेफड़े के भीतर जा के समा गयी, उसे जीवनदान दिया। उस हवा में आज भी कुमार गंधर्व की आवाज सुनाई देती है। वे आज भी साधारण महिलाओं के गीत सुन रहे हैं, उन्हें गा रहे हैं। लोक संस्कृति को वह गरिमा दे रहे हैं जो अपने ही समाज से पराये हो गये पढ़े-लिखे लोग नहीं दे सके।

अपने-पराये के द्वैत से ऊपर उठ के कुमार गंधर्व ने अपने जीवन को सहजता का प्रयोग बनाया। संगीत के शास्त्र में पारंगत हो के उन्होंने लोक का गीत सुना, उसकी साधना की। शास्त्रीय संगीत को आनंद और रस का साधन माना।

सन् 1924 की अप्रैल 8 को कर्नाटक में जन्मे इस मालव सपूत की आज जन्मशति है। हमें उनके बारे में अपने घर के बच्चों को बताना होगा। क्योंकि अगला शिवपुत्र कहाँ पैदा होगा यह कोई कह नहीं सकता। वह जिस किसी घर में जनम ले, हम उसकी प्रतिभा को अपनी असुरक्षा के बुलडोजर के नीचे न आने दें, ऐसी प्रतिज्ञा करने का यह दिन है। मालव भूमि को गैर-गम्भीर रखने की प्रतिज्ञा करने का दिन है। अपनी रतन तलाई से परायेपन का गाद निकाल के उसमें गीत वर्षा का रस संजोने का दिन है।

[सोपान जोशी की लिखी कुमार गंधर्व की बाल-सुलभ सचित्र जीवनी भोपाल में एकतारा से प्रकाशित हुई है। इसका हिंदी शीर्षक है शिवपुत्र कथा और अंग्रेजी है An Improbable Life]



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