पी.वी.सतीश – ‘मिलेट मैन’ नहीं, स्वस्थ्य खेती करने वाली दलित महिलाओं के दूत

[इस लेख का संपादित रूप ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका के 5 अप्रैल 2023 के अंक में छपा है]

सोपान जोशी

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भारत के प्रस्ताव पर 2023 को ‘अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष’ घोषित किया था। शनिवार, मार्च 18 को दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में ‘ग्लोबल मिलेट्स (श्री अन्न) सम्मेलन’ का उद्धाटन हुआ। इसके अगले ही दिन उस व्यक्ति की मृत्यु हो गयी जिसे इन अनाजों को फिर से प्रचलन में लाने का सबसे अधिक श्रेय जाता है।

एक लंबी बीमारी के बाद 77 साल की उम्र में मार्च 19 को पी.वी. सतीश का देहांत हो गया। उन्हें कई श्रद्धांजलियाँ दी गयीं, जिनमें यह याद दिलाया गया कि भारत के असली ‘मिलेट मैन’ वे ही हैं। ऐसा इसलिए कि यह खिताब कम-से-कम दो और लोगों पर पहले ही मढ़ा जा चुका है और इसके अन्य दावेदारों भी कतार में होंगे ही!

हमारे इस इश्तेहारी दौर की फितरत यही है! सच बताने लायक तभी होता है जब वह आसानी से गले उतर सके! वर्ना कल्पनाओं से, सच्चे-झूठे ‘लेबलों’ से काम चल जाता है! तो फिर आखिर भारत का असली ‘मिलेट मैन’ है कौन?

अगर सतीश इस सवाल को सुनते, तो हँसते! उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया इस तरह की सतही समझ और विज्ञापनी लेबल हटाने में। उनके जीते-जी उन्हें किसी ने ‘मिलेट मैन’ कहा हो यह उनके सहयोगियों को पता नहीं है। इश्तेहारों की भाषा और तौर-तरीके वे 1960 के दशक से जानते थे, उन्हें पढ़ाते भी थे। अपनी सूझ-बूझ का उपयोग उन्होंने साबुन-तेल या या सॉफ्टवेयर या आर्थिक विकास का सपना बेचने के बाजारू अभियानों में नहीं किया!

अपना फलता-फूलता कैरियर 1980 के दशक में छोड़ के वे साधारण महिलाओं के खेती-बाड़ी के विवेक को समझने में जुट गये। सतीश के बारे में लोग इतना कम इसलिए जानते हैं क्योंकि उन्होंने आत्मप्रचार से लंबी दूरी बना के रखी, न अपने आप को चमचों से घेरे रखा जो उनका ढोल बजाएँ। उन्होंने हमारे साधारण समाज की मेधा का अध्ययन किया। उसे वह सम्मान दिलाने की कोशिश की जिसकी उपेक्षा समाज का पढ़ा-लिखा, आत्मलीन वर्ग करता ही रहता है। सतीश के नायाब जीवन में ‘मिलेट’ केवल एक कड़ी थी।

मैसूरू का एक धनवान परिवार

उन्हें अपने बारे में बात करना पसंद नहीं था। केवल उनके निकट के कुछ लोगों को यह पता था कि पेरियापटना वेंकटसुबैय्या सतीश का जनम जून 18, 1945, को मैसूरू के एक साधन-संपन्न परिवार में हुआ था। एक सहयोगी को उन्होंने बताया कि उनके बचपन का एक हिस्सा कॉफी के बागानों पर बीता था।

कॉलेज में उन्होंने पत्रकारिता पढ़ी और गोल्ड मेडल के साथ स्नातक हुए। जब सन् 1965 में भारतीय जन संचार संस्थान दिल्ली में बना, तब उसके शुरुआती सालों में सतीश वहाँ पढ़ने आये। उसी दौर में आकाशवाणी के एक हिस्से में ‘दूरदर्शन’ के नियमित टी.वी. कार्यक्रम शुरू हुए थे। सतीश दूरदर्शन के हैदराबाद केंद्र में प्रोड्यूसर हो गये।

जब 1975 में उपग्रह के इस्तेमाल से ‘साइट’ नामक प्रयोग दूरदर्शन पर हुआ, तब सतीश को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। इसमें ग्रामीणों के सवालों का जवाब टी.वी. पर दिया जाता था। छह राज्यों के बीस जिलों के 2,400 गाँव तक ‘साइट’ कार्यक्रम की पहुँच थी। हजारों ग्रामीण पहली बार टी.वी. सेट देखने उमड़ पड़े थे।

‘इसरो’ और ‘नासा’ जैसी संस्थाओं की भागेदारी वाला यह प्रयोग सफल हुआ। इससे यह तय हुआ कि भारत में उपग्रह के माध्यम से संचार व्यवस्था जम सकती है। (उस रास्ते पर चलते हुए आज हम कहाँ पहुँच गये हैं!) इसका एक असर यह भी हुआ कि सतीश का परिचय संयुक्त आंध्र प्रदेश की ग्रामीण समस्याओं से हुआ। एक धनवान परिवार में जनमे इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों के पत्रकार ने गाँवों में रहने वालों की सुध ली!

प्रतिभाशाली लोगों को दूसरों की प्रतिभा की परख भी आ जाती है, वह भी अलग-अलग विधाओं में। सन् 1983 में जब हैदराबाद में एक-दिवसीय क्रिकेट मैच हुआ, तब सतीश के आग्रह पर 22 साल के एक प्रतिभाशाली युवक को टी.वी. कॉमेंट्री करने का पहला मौका दिया गया। इस युवक का नाम था हर्षा भोगले, जो आगे चल के क्रिकेट कॉमेंट्री में प्रसिद्ध हुए। सतीश की मृत्यु पर हर्षा भोगले ने उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ट्विटर पर प्रकट की और भावभीनी श्रद्धांजलि दी।

दूरदर्शन के प्रोड्यूसर के नाते सतीश ग्रामीण भारत पर ध्यान देने लगे। ऐसे ही किसी कार्यक्रम को बनाने के लिए हैदराबाद के पश्चिम में सांगारेड्डी जिले के जहीराबाद मंडल के पस्तापुर गाँव में उनका जाना हुआ। यहाँ से उनका लगाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा। अब उनके परिचय में ऐसे कई लोग आ चुके थे जो गाँवों के उत्थान में रुचि रखते थे, जो ग्रामीण लोगों की मदद के लिए कुछ करना चाहते थे। ये सभी लोग खूब पढ़े-लिखे थे, ग्रामीण भारत का तरह-तरह से विकास करना चाहते थे। इन्होंने मिल के पस्तापुर में एक संस्था बनायी जिसका नाम था ‘डेकन डेवेलपमेंट सोसायटी’ या डी.डी.एस.

नाको चबाने पड़े विकास के चावल

संस्था बनाने वालों का वास्ता पड़ा वहाँ के लोगों से। उन्हें ऐसा बहुत कुछ समझ में आने लगा जो बाहर के लोगों के लिए जानना नामुमकिन है। जैसे उन्होंने यह जाना कि आजादी के बाद जब भूमि आवंटन हुआ और जमीन की मिल्कियत की सीमा तय हुई, तब ताकतवर जातियों ने उपजाऊ टुकड़े अपने परिवार में ही रख लिए।

कमजोर और दलित जातियों को मिली ऐसे जमीन के टुकड़े जो रिहाइशी इलाकों से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर थे। उनके पास बैल और गाड़ियाँ नहीं थी उन खेतों तक पहुँचने के लिए। यही नहीं, उन्हें मिले जमीन के हिस्से खेती के लिए बेकार थे। पथरीले थे और कंटीली झाड़ियों से अटे हुए! हवा और गर्मी के कटाव से उनमें उपजाऊ मिट्टी बची ही नहीं थी। आजीविका के लिए वे बड़े जमींदारों की मजदूरी ही कर सकते थे, जैसा आजादी के पहले करते थे।

फिर 1983 में आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव की सरकार आयी और मजदूरी भी बंद हो गयी। रामाराव फिल्मी जगत से आये थे और उनकी नीतियाँ का आग्रह झट से प्रजा को खुश करने का था। उनकी प्रेरणा थी पड़ोसी राज्य तमिल नाडु में फिल्मी दुनिया से आये मुख्यमंत्री एम.जी. रामाचंद्रन की लोक-रिझावन नीतियाँ। जैसे कि सरकारी रियायत पर दो रुपये किलो का चावल! इस तरह की नीतियों से राजनीतिक कैरियर तो झट-पट बन जाते हैं, समाज का दूरगामी नुकसान होता है। उत्पादन करने वाले आत्मनिर्भर लोग राजनीतिक कृपा के दयनीय पात्र बन जाते हैं।

सस्ते चावल की वजह से बड़े जमींदारों का ध्यान भी अपनी खेती से हट गया। बंजर जमीन वाले छोटे किसानों को अब मजदूरी तक के लाले पड़ गये थे। इसका सबसे बुरा असर था दलित महिलाओं पर। अनेक तरह के अनाज उगाने और परिवार को पोसने के लिए उनका संचय करने वाली महिलाओं की हालत बदतर हो चली थी। उनके पास न तो रोजगार था, न खेती, न दिहाड़ी, न किसी तरह का उत्पादन। बस, बचा था केवल सरकारी कृपा का सस्ता चावल!

नये शिक्षक, नयी शिक्षा

पस्तापुर पहुँचने पर सतीश और उनके साथियों का सामना इन दलित महिलाओं से हुआ। कोई दूसरा होता, तो खुद को उनका उद्धारक मान लेता! सतीश पत्रकारिता की दुनिया के भीतर से निकले थे। भाषा, संचार और प्रतिनिधित्व की राजनीति से परिचित थे। उन्हें यह पता था कि उस स्थान की समस्याओं का समाधान बाहर से नहीं आ सकता! उसे तो वहीं पर खोजना पड़ेगा!

उन्होंने इन महिलाओं से लंबी बातचीत शुरू की। धीरज से उन्हें सुनना-समझना शुरू किया। यही महिलाएँ उनकी गुरु बन गयीं। सतीश ने शादी तो नहीं ही की थी, 1987 में उन्होंने दूरदर्शन की नौकरी भी छोड़ दी और अपना तन-मन-धन पस्तापुर और डी.डी.एस. में लगा दिया।

इन्हीं से सतीश को पता चला कि इस इलाके में चावल की खेती केवल उन जगहों पर होती थी जहाँ ‘एरी’ यानी तालाब बने हुए थे, दक्खन के पठार की ढाल के हिसाब से। साधारण लोग जवार और बाजरा जैसे ‘मोटे’ अनाज उगाते और खाते थे, जिन्हें सींचने के लिए नहरों और तालाबों की जरूरत नहीं पड़ती थी।

बहुत कम बारिश में भी ये अनाज उग आते थे और इनसे पशुओं के लिए पर्याप्त चारा निकलता था। एक ही खेत में तरह-तरह की फसलें उगती थीं – मोटे अनाज, दलहन, तिलहन, साग और सब्जियाँ भी! ऐसी खेती से सूखे इलाके में भी मिट्टी उपजाऊ बनी रहती थी। इन साधारण महिलाओं को पीढ़ियों के अनुभव से यह भी पता था कि उनके विविध अनाज सेहत के लिए कई मामलों में गेहूँ और चावल से बेहतर हैं।

सतीश के माध्यम से नये शोध करने वाले पस्तापुर आने लगे, जो साधारण समाज के खान-पान पर नयी पद्धत्ति से शोध करने लगे। उन्हें आधुनिक यंत्रों और ज्ञान विधाओं से पता लगा कि इन महिलाओं की बातें एकदम खरी थीं। सतीश के लिए सबसे बड़ा सबक यह था कि स्वस्थ्य खेती अरण्य या वन या जंगल की ही तरह प्रकृति के साथ चलती है। उसमें विविधता होती है। एक फसल की खेती किसान तभी करते हैं जब उन के ऊपर राज्य की कठोरता हो या कॉरपोरेट दबाव हो। सौ साल पहले चंपारण में नील की खेती को एक बार याद कर लें!

इसके बाद डी.डी.एस. ने महिला किसानों के संगम बनाये। इनके दम पर एक नया खाद्य सुरक्षा का ढाँचा बना, एक नयी राशन व्यवस्था! इसमें मोटा अनाज उगाने वाले किसान फसल का एक हिस्सा संगम की महिलाओं को देते थे, जिसके बदले सरकार से मिलने वाली सबसिडी का एक हिस्सा उन्हें सीधा मिल जाता था। इस व्यवस्था का एक असर यह हुआ कि ऊँची जाति के पुरुषों को अनाज के लिए दलित महिलाओं के पास आना पड़ा। समाज में भेद-भाव तो कम हुआ ही, पुरानी खेती पर लौटने की वजह से मवेशियों के लिए चारा भी निकलने लगा। अचानक पशुपालन बढ़ने लगा, जिससे खेती के लिए गोबर की खाद भी निकलने लगी। समाज की समृद्धि बढ़ी, आर्थिक समृद्धि भी!

नैतिकता की कोरी गुहाई नहीं, समझदारी का आकर्षण

सतीश में गजब का सौंदर्य बोध था। उन्हें यह समझ आ गया थी कि महिलाएँ जो भी घरेलू काम करती हैं, उसमें खूबसूरती डालने का प्रयास करती हैं। स्वस्थ्य खेती के संदेश का प्रसार करने के लिए उन्होंने इस क्षेत्र में निकलने वाली धार्मिक ‘जात्राओं’ की मदद ली। डी.डी.एस. से संबंधित महिलाएँ और सतीश, दोनों ही हर कठिन-से-कठिन काम को आकर्षक और लुभावना बनाते थे। आज से तीस साल पहले डी.डी.एस. के संगमों की महिलाओं ने वीडियो फिल्म बनाने का हुनर सतीश से सीख लिया था। संभवतः देश का पहला ‘कम्यूनिटि रेडियो’ स्टेशन भी इन्हीं महिलाओं ने डी.डी.एस. में बनाया।

इस तरह के प्रयासों से विविध प्रतिभा के लोगों का ध्यान ग्रामीण समाज और खेती की समस्याओं पर आने लगा। वे डी.डी.एस. में रह के प्रशिक्षण लेने लगे, उन साधारण महिलाओं की सूझ-बूझ से सीखने लगे जिससे सतीश ने सीखा था। इसका सीधा नतीजा यह था कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में स्वस्थ्य खेती को ले के अभियान खड़ा होने लगा। खेती को उसके प्राकृतिक रूप में समझने वालों की एक पीढ़ी तैयार हुई। इस अभियान का आकर्षण दूसरे राज्यों में किसानों के साथ काम करने वाले लोगों पर भी पड़ा। नये प्रयोग होने लगे, तरह-तरह के लोग खेती को फिर से प्रकृति से जोड़ने के प्रयास करने लगे।

ऐसे अभियानों की वजह से ही चावल-गेहूँ की खेती में फँसे हुए कुछ नये लोगों में जवार और बाजरा जैसे मोटे अनाजों का दूर-दूर तक प्रचार शुरू हुआ। आज से 22 साल पहले हैदराबाद में इन मोटे अनाजों पर आधारित एक भोजनघर सतीश ने बनवाया, ताकि अपने ग्रामीण समाज से कट चुके नागर लोगों को अपने साधारण लोगों के विवेक का परिचय मिले। देसी खेती पर काम करने वाले अनेक कार्यकर्त्ता, अनेक शोधकर्त्ता सतीश से प्रेरणा पाते रहे, विचार पाते रहे, मदद भी।

उनके काम से इन अनाजों का व्यापक प्रचार हुआ, हालाँकि अपनी जड़ों से उखड़ा नया समाज इन्हें केवल अंग्रेजी के एक फैशनेबल नाम ‘मिलेटस्’ से जानता है। इनका प्रचार सतीश के लिए व्यापक काम का एक छोटा-सा हिस्सा भर था। उनका असली काम था समाज और प्रकृति की गहरी, व्यावहारिक समझ पैदा करना। अपने साधारण लोगों के ज्ञान और सूझ-बूझ को सम्मान देना, उसमें छिपे बड़े संदेश को उन लोगों तक पहुँचाना जो अपनी मिट्टी और समाज से कट चुके हैं।

जी नहीं, सतीश भारत के ‘मिलेट मैन’ नहीं थे। वे भारत की साधारण महिलाओं के विवेक को समझने वाले अपने समाज के सपूत थे। वे भारत की असंख्य ‘मिलेट वुमैन’ के दूत थे, उनसे सीखने वाले थे, उन्हें संबल देने वाले थे। अपनी मिट्टी-समाज से कटे हुए ‘नये इंडिया’ के उफनते अहंकार के सामने वे एक स्वस्थ्य जीवन का उदाहरण बन के जीए। फिर अपने एक कमरे की अस्तित्व को समेट के चले गये। श्रद्धांजलि!



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1 reply

  1. To read about this remarkable man in your words is a double delight.
    Thank you Sopan ji.

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