ये धुआँ-सा कहाँ से उठता है

[यह लेख 3 सितंबर 2021 के ‘दैनिक हिन्दुस्तान‘ में संपादकीय पृष्ट पर प्रकाशित हुआ था।]

– सोपान जोशी

दिल्ली के प्रसिद्ध कवि मीर ने एक बार पूछा था – “देख तो दिल के जाँ से उठता है, ये धुआँ-सा कहाँ से उठता है”। गजल का यह मतला कोई ढाई-सौ साल पुराना है। दिल्ली में हम आज भी कुछ ऐसे ही सवाल पूछ रहे हैं, चाहे मीर का अंदाज-ए-बयाँ न भी हो। एक नया आँकलन बताता है कि दिल्ली की जहरीली हवा में साँस लेने वालों की उम्र उम्मीद से करीब दस साल कम रह जाती है। उत्तर भारत के लिए यह आँकड़ा साढ़े-आठ साल है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश वाले अपनी अपेक्षित आयु से ढाई-तीन साल पहले ही वायु प्रदूषण की बलि चढ़ते हैं।

इस तरह के तथ्य ढाई दशक से लगातार सामने आ रहे हैं। किंतु सेहत को नुक्सान भी बढ़ रहा है और जान को जोखिम भी। झोली भर-भर के ओलिंपिक मेडल बटोरने की आकांक्षा करने वाले इस समय में दिल्ली के हर तीसरे बच्चे के फेफड़े कमजोर पाये गये हैं। वायु प्रदूषण की हमारी समझ जितनी गहरी होती जा रही है, इससे निपटने का हमारा बूता उतना ही घटता दिख रहा है।

कभी-कभी साहित्य में ऐसी बात सहज ही दिख जाती है जिसे समझाना विज्ञान के लिए कठिन होता है। उत्तर भारत के पुराने किस्से-कहानियों में गाँवों के ऊपर खड़े हुए धुएँ का वर्णन मिलता है। खासकर जाड़े के अलसाये माहौल का बखान करने के लिए कुछ लेखकों को हवा में जमे हुए, थमे हुए धुएँ का रूपक उपयोगी लगा है। उस समय न तो कोयला जलाने वाले कारखाने थे, न ही डीजल-पेट्रोल की गाड़ियाँ ही। धुआँ घरों में जलते चूल्हों का था। घरों में गैस का चलन आने के बाद लकड़ी और कंडे का इस्तेमाल कम हुआ है। किंतु दुनिया भर के सबसे प्रदूषित शहरों की सबसे बड़ी संख्या उत्तर भारत में ही है।

ऐसा नहीं है कि बाकी भारत में धुआँ उगलने वाले उद्योग और ट्रैफिक नहीं है। किंतु उत्तर भारत के मैदानी इलाकों का भूगोल बाकी देश से अलग है। इसे ध्यान में रखें, तो वायु प्रदूषण की मार तो समझ में आती ही है, गंगा-यमुना जैसी नदियों के प्रदूषण के कारण भी साफ होते हैं। हम जिस भूखंड पर रहते हैं, वह लाखों साल पहले एशिया से टकराया था। हिमालय इसी टक्कर से पैदा हुए हैं, इसी से हमारा उत्तरी भूभाग एशिया के नीचे दब रहा है, जबकि तिब्बत समुद्र से साढ़े-तीन किलोमीटर ऊपर पहुँच गया है। इस निचले इलाके के उत्तर में हिमालय है, दक्षिण में छोटानागपुर और मालवा के पठार भी हैं और विंध्याचल पर्वत माला भी।

यह खाई हमें दिखती नहीं है। इसे हिमालय से आने वाली प्रचंड नदियों ने उसकी मिट्टी से, उसके गाद से भर दिया है। तभी पंजाब से बंगाल तक ऐसा सपाट मैदानी इलाका है जो पानी ही बना सकता है। इस निचले इलाके के उत्तर-दक्षिण, दोनों तरफ पर्वत श्रृंखलाएँ हैं। इसके पश्चिम की ओर थार का मरुस्थल है, जहाँ से रेत के कण उड़ के आते हैं। यानी यह एक भीमकाय घाटी है। यमुनोत्री और गंगोत्री से निकलने वाली धाराएँ बंगाल में जा के समुद्र से मिलती हैं। इनके करीब से ही उभरने वाली सतलुज जैसी नदियाँ सिंधु में मिल अरब सागर में विसर्जित होती हैं।

पंजाब से बंगाल तक के इस निचले इलाके में बाकी देश की तुलना में हवा कम चलती है। हिमालय के ऊँचे शिखरों से निकली बर्फीली हवाओं से इस इलाके के वायुमंडल के ऊपरी हिस्से पर एक ठंडी चादर जैसी बिछी रहती है। यानी यहाँ का धुआँ उतनी आसानी से उठ के छितराता नहीं है जितना दक्षिणी या पश्चिमी भारत में होता है। यानी दिल्ली, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना जैसे नगर ऐसे क्षेत्र में बसे हैं जिसकी हवा किसी ‘प्रेशर कुकर’ की तरह बंद है। यहाँ धुआँ पैदा करने वाले सभी उद्यमों की सीमा होनी चाहिए।

यह बहुत कठिन है। हमारी लगभग आधी आबादी इस इलाके में बसती है। दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में गंगा का मैदानी इलाका है। इसका कारण भी भूगोल में मिलता है। खेती-बाड़ी की पैदावार नदियों के किनारे अधिक होती है। नदियों से सिंचाई तो होती ही है, हिमालय की मिट्टी उर्वर है। नदी किनारे कई और सुविधाएँ मिलती हैं। सड़क और रेल के विस्तार से पहले यातायात का बड़ा साधन नदियाँ ही थीं। आधुनिक विज्ञान मनुष्य की उत्पत्ति नदियों के किनारे नहीं मानता है। पर सभ्यताएँ तो नदी किनारे ही पनपी हैं। बड़े राज्य नदियों के किनारों से ही खड़े हुए हैं, साम्राज्य भी। इस इलाके के भूगोल ने हिंदी भाषा को ढाला भी है। खड़ी बोली और ब्रज भाषा से ले के हिंदवी और रेख्ता और उर्दू भी इसी इलाके में बनी हैं, क्योंकि यहाँ तरह-तरह की जुबान बोलने वाले लोग आ के बसे हैं।

इससे यह भी समझा जा सकता है कि गंगा इतनी प्रदूषित क्यों है, यह भी कि उसे साफ करना इतना कठिन क्यों है, जबकि इसके लिए कार्यक्रम 1986 से चल रहे हैं। उत्तर में हिमालय और दक्षिण में विंध्य पर्वत का पानी भी गंगा में आ के मिलता है। इतने बड़े इलाके का मैला पानी ही नहीं, सभी जहरीले पदार्थ इस्तेमाल होने के बाद गंगा में पहुँचते हैं। हम जो दवाएँ खाते हैं उनका ज्यादातर हिस्सा हमारे पेशाब से निकल जाता है। यह दूसरी नदियों से होता हुआ गंगा में पहुँचता है। जब करोड़ों लोगों का अपशिष्ट नदियों में मिले, तब कोई अचरज नहीं कि गंगा के इलाके में कैंसर रोग अत्यधिक है।

हमारी राजनीति का भूगोल से कोई लेना-देना नहीं है। हम धर्म या जाति या क्षेत्र के आधार पर अपना-पराया तय करते हैं। किसी पहचान को रूढ़ मान कर अपने को दूसरों से अलग करना सुविधाजनक होता है। राजनीति को इससे लाभ होता है। जब कभी राजनीति इससे उबरने की कोशिश करती है, तब उसे ‘विकास’ दिखता है। विकास का मतलब है कोयला और पेट्रोलियम जला के वायु प्रदूषण करना, नदियों का पानी निचोड़ के उनमें मैला डालना। इसके अलावा जो भी विकास की बात होती है वह निराधार है।

इसी विकास के अंतर्गत दिल्ली में बीस करोड़ रुपये की कीमत पर एक धुआँ कम करने का ‘स्मॉग टावर’ लगा है। विकास की राजनीति से निकले उपचार तो उसके रोग से भी ज्यादा वीभत्स हैं! मीर से माफी माँगते हुए कह सकते हैं – “उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया, देखा इस बीमारी-ए-‘विकास’ ने आख़िर काम तमाम किया”!

अगर हम अपने समाज को स्वस्थ्य देखना चाहते हैं, तो हमें विकास की सीमा तय करनी होगी। आज की रोजी-रोटी और विकास के लिए राजनीति पर्यावरण की बलि चढ़ाना चाहती है। उसका दावा है कि एक बार खुशहाल हो गये, तो उसके बाद पर्यावरण भी सुधार लेंगे! यह कोरा झूठ है। हमारी रोजी-रोटी राजनीति और विकास से नहीं, कुदरत की नेमत से है। पर्यावरण का नाश कर के हम विकास का ब्याज नहीं कमा सकते हैं। राजनीति का आयकर चुकाना तो दूर की बात है!



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