[ लेख का संपादित अंश दैनिक भास्कर की पत्रिका रसरंग में छपा था।
मूल लेख बाद में ‘गांधी मार्ग’ में छपा है ]
सोपान जोशी
दो हफ्ते का मौसम है जो हर साल नवंबर–दिसंबर में आता है। संयुक्त राष्ट्र की सालाना मंत्रणा होती है जलवायु परिवर्तन पर। इस साल की मंत्रणा दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में हो रही है। हर किसी को इस दौरान पर्यावरण का बुखार चढ़ता है। हर अखबार–पर्चे, पत्रिका और खबरी टीवी में पृथ्वी के वायुमंडल में होते उथल–पुथल की जानकारी की बाढ़ ही आ जाती है।
बार–बार बताया जाता है कि अमुक साल तक अमुक डिग्री तापमान बढ़ने से प्रलय की स्थिति आ जाएगी। हर साल कई लोग पृथ्वी को बचाने की कसम खाते हैं। अखबारों और टीवी में पर्यावरणवादियों के विरोध प्रदर्शन के चित्र आते हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ बताते हैं कि स्थिति कितनी गंभीर है। हर साल कहा जाता है कि घरती को बचाने का समय तो बस यही है क्योंकि बाद में बहुत देर हो जाएगी।
ऐसा हम पिछले 20 साल से सुनते आ रहे हैं। पृथ्वी को बचाने के कम से कम बीस आखिरी मौके तो हम चूक ही चुके हैं। 21वा मौका अभी दक्षिण अफ्रीका में प्रस्तुत है। दिसंबर के दूसरे हफ्ते तक ये बुखार उतर जाता है। और फिर नए साल के उल्लास और उत्सवों में जलवायु की चिंता डूब जाती है। अगले नवंबर तक। और क्यों नहीं डूबे? नाउम्मीदी सहने की एक हद होती है। हम सब को जीवन जीने के लिए आशा चाहिए होती है जो हम एक नए साल में ढूंढते हैं।
पर हर साल हमें जलवायु परिवर्तन को लेकर हताश होना ही क्यों पढ़ता है? हमें ध्यान रखना चाहिए कि ये संयुक्त राष्ट्र संघ का स्वभाव है। इस तरह के मायूसी के मेले उसके कैलेंडर में अटे मिलते हैं। 1992 में संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया भर के शीर्ष नेताओं को ब्राजील के शहर रीओ में बुलाया पर्यावरण पर बातचीत करने के लिए। इसे पृथ्वी शिखर वार्ता कहा गया। इसमें तीन बड़े पर्यावरण संकटों के समाधान के लिए तीन संधियों पर हस्ताक्षर हुए।
तीनों विषय ऐसे हैं जिनसे हिंदी बोलने और लिखने वालों का सीधा संबंध है। फिर भी इनके नाम इतने जटिल कि समझ के परे हैं: जलवायु परिवर्तन, जैविक विविधता और मरुस्थलीकरण। अबूझ भाषा संयुक्ट राष्ट्र संघ के स्वभाव में है। उसके नौकरशाह ऐसी जुबान बोलते हैं जिससे किसी को बुरा ना लगे। जैसा कि डर से करे हुए कामों में होता है, किसी को बुरा लगे चाहे ना लगे, अच्छा तो किसी को नहीं लगता। डींगें तो बहुत बढ़ी होती हैं पर सकारात्मक कुछ भी नहीं होता।
तीनों संधियों के पेंच समझने के लिए इनके मूल में झांकना होगा। जैविक विविधता ज्यादातर उष्णकटिबंध के गरीब देशों में है। बढ़ते हुए मरुस्थल दुनिया के सबसे गरीब देशों की समस्या हैं। इन दोनों में युरोप और अमरीका के अमीर देशों की कोई रुचि नहीं होती। इसलिए जैव विविधता और बढ़ते मरुस्थलों पर मंत्रणा दो साल में एक बार होती है। कब होती है और कब खतम होती है पता ही नहीं चलता। जैसे मरुस्थलों पर दसवीं मंत्रणा अभी महीने भर पहले दक्षिण कोरिया में हुई। हमारे यहाँ पता तक नहीं चला।
जलवायु परिवर्तन की बात कुछ और ही है। पृथ्वी का वायुमंडल इतना तेजी से बदल रहा है। कारण है युरोप और अमरीका के देशों की पिछले दो सौ साल में बहुत तेजी से बढ़ी अमीरी है। कार्बन की गैसें तो हमारे जीवन के हर हिस्से से बनती हैं। यहाँ तक की हम साँस भी छोड़ते हैं तो कार्बन डाइआक्साइड ही निकलती है। पर औद्योगिक क्रांति के बाद युरोप और फिर अमरीका में प्रकृति से मिले संसाधन को धड़ल्ले से भुनाया गया।
खनिज, कोयला, पेट्रोल, पानी,जंगल के पेड़, मिट्टी की उर्वरता, इन सबका इतना तेज उपयोग मनुष्य ने पहले कभी नहीं किया। इससे बने उपभोग के साधनों से युरोप और अमरीका में एक तरह की अमीरी तो आ गयी है पर हमारे वायुमंडल में कार्बन की गैस बहुत बड़ गयी है। इसका सीधा असर है कि धरती पर पड़ने वाली सूरज की गर्मी बराबर पलट नहीं पाती। नतीजतन घरती का तापमान बड़ रहा है जिससे हमारे जीवन में उथल पुथल आ रही है।
वायुमंडल अमीर और गरीब देशों का फर्क नहीं करता। जरूरत और भोग–विलास का भी नहीं। हम लोगों के पास कभी भी साँस लेने का बिल नहीं आता। पर अमीर देशों के भोग–विलास से हुए जलवायु परिवर्तन का बिल गरीब देश चुका रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के सबसे भीषण परिणाम उष्णकटिबंध के इलाके में ही दिख रहे हैं। विज्ञान हमें बता रहा है कि समुद्र तल के उठने से घनी आबादी वाले देशों के कई हिस्से डूब जाएंगे। जैसे बांग्लादेश। ऐसा होने से लाखों लोग शरणार्थी बन कर भारत आ जाएंगे। हजारों साल से बने खेती के तरीके बेकार हो जाएंगे क्योंकि बारिश का समय और मात्रा बहुत बदलेंगे। सूखा और बाढ़, दोनों का असर ज्यादा होगा। परंतु कुछ अमीर देशों को जलवायु परिवर्तन से फायदा भी होगा। जैसे कैनेडा और रूस में बरफ के नीचे दबी लाखों एकड़ भूमि खुल जाएगी।
अमीर देश अपने भोग–विलास में कटौती करने को तैयार नहीं हैं। जो सरकार और शासन का तंत्र हमारे इस आधुनिक युग में सत्तासीन है वो केवल पैसे की आवाज सुनता है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में होने वाले पर्यावरण कार्यक्रम असरकार नहीं होते। समस्याएं गरीब देशों के पास होती हैं और धन अमीर देशों के पास। इसका सीधा असर संयुक्त राष्ट्र के काम में दिखता है जो मूलत जड़ है।
हर साल दिसंबर में होने वाली जलवायु मंत्रणा का ढर्रा तय है। पहले हफ्ते 190 देशों के कूटनीतिज्ञ और नौकरशाह बैठ कर बहस करते रहे। माहौल में संयुक्त राष्ट्र की खास मनहूसियत और गंभीरता रहती है। भाषणबाजी का निहित भाव ना तो अपनी बात समझाना होता है और ना ही किसी और की बात समझना। उलझी से उलझी, जटिल से जटिल भाषा में छोटी से छोटी बात पर बारीकी से झकबाजी होती है। हर बात का बहुत गहरा पटक्षेप होता है जो थोड़े बहुत लोगों को ही पता होता है। इसके ऊपर कम से कम तीन युरोपीय भाषाओं में काम होता है: अंग्रेजी, फ्रेंच और स्पैनिश। हर विषय पर संधिक्रम एक अनंत शतरंज के खेल सा होता है।
जब जलवायु संधि पर हस्ताक्षर हुए थे तब ये तय हुआ था कि कटौती अमीर देश करेंगे और गरीब और विकासशील देश, जैसे भारत, अपनी गरीबी दूर करने के बाद कटौती करनी शुरु करंगे। पर आज तक किसी देश ने असरदार कटौती नहीं की है। हर मुल्क के कूटनीतिज्ञ गहन और उबाऊ शब्दों में ये ही बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदारी उनकी नहीं है। अमीर देश अपने भोग–विलास को अपनी बुनियादी जरूरत बताते हैं और गरीब देश अपनी फटेहाली का रोना रोते हैं। दोनों कार्बन गैस छोड़ने में कटौती से बचते हैं। हर एक गहन वैज्ञानिक तथ्य दिखाता है। हर तर्क का कुतर्क होता है। हर बादशाह पर इक्का पड़ता है। और इक्के पर दुक्की।
गरीब देशों से आए कूटनीतिज्ञ रोतले और अकेले दिखते थे। जैसे अनमने ही भीख माँगने आ गए हों और ताकतवर प्रतिद्वंदियों के सामने निरीह बकरे जैसे डाल दिए गए हों। उनकी भाषा में क्रियाएं भी अकर्मक होती हैं। फिर गरीब देशों पास भेजने के लिए ठीक प्रतिनिधि होते भी नहीं हैं। अगर हों तो उन्हे भेजने का पैसा और दिमाग दोनों नहीं होता। अमीर देश बीसियों या कुछ सौ लोगों के दल भेजते हैं जिनमें कई विशेषज्ञ, कूटनीतिज्ञ और सौदेबाजी के विशेषज्ञ होते हैं। वहीं कुछ गरीब देश तो एक या दो लोगों के दल भेजते, और उनकी रुचि भी विदेश घूमने फिरने में ज्यादा होती, जलवायु परिवर्तन में कम। इसलिए उनमे से कोई अगर कुछ ठीक काम करना चाहे तो भी कर नहीं सकता।
दूसरे हफ्ते में देशों के राजनीतिक नेता आ धमकते हैं। कूटनीतिज्ञ बहस से तय हुए मसौदे पर राजनीतिक सौदेबाजी होती है। हर साल उम्मीद ये होती है कि राजनेता साथ मिल कल चलने का रास्ता निकालेंगे। हर बैठक के बाहर पत्रकार और पर्यावरण कार्यकर्ता टकटकी लगाए इंतजार करते हैं नतीजे का। हर साल राजनीतिक नेता कुछ ऐसी घोषणा करते हैं जो कर्णप्रिय हो। हम सबका साझा भविष्य बचाने के लिए हर संभव प्रयास करने जैसी ऊँची बाते। पर बारीकी से पढ़ने पर पता चलता है कि कोई भी पुख्ता राजनीतिक या संवैधानिक प्रण नहीं है। कूटनीतिज्ञ और विशेषज्ञ अगले साल की मंत्रणा और उसके लिए होने वाली साल भर की बैठकों की तैयारी में चले जाते हैं।
अगर आपकी संवेदनाएं सुन्न नहीं हों तो इस सालाना सर्कस समारोह को करीब से देखना अवसन्न छोड़ देता है। क्योंकि विज्ञान हमें हर रोज बता रहा है कि हमारे भोग–विलास की गैस के नशे में हम वो सब बिगाड़ रहे हैं जो इस पृथ्वी पर हमारा जीवन बनाता है। पर्यावरण और पृथ्वी को बचाने की बचकानी बातचीत में हम भूल जाते हैं कि पृथ्वी हम सबसे कहीं बड़ी और पुरानी है। विज्ञान मनुष्य की उत्पत्ति कोई दो लाख साल पहले अफ्रीका में मानता है। पृथ्वी की उत्पत्ती कोई 450 करोड़ साल पहले की आंकी जाती है। ठीक से पता करने की कूवत हमारे यहाँ है ही नहीं।
इसलिए जो कोई भी हमारे ग्रह को बचाने की बात करे उसे याद रखना चाहिए कि हम पृथ्वी का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। जब कभी प्रलय आएगा तब हम वैसे ही गायब हो जाएंगे जैसे डाइनोसोर हुए थे। पृथ्वी जीवन के किसी नए रूप को जन्म देगी। अगर बचाना है तो हमें अपने आप को बचाना होगा। अपने आप से।
क्योंकि विज्ञान हमें ये भी बताता है कि मनुष्य का क्रम विकास, जिसे अंग्रेजी में ‘एवोल्यूशन’ कहते हैं, एक समूह में रहने वाले प्राणी की तरह हुआ है। मनुष्य जाति की कामयाबी का कारण रहा है पारिवारिकता, सामाजिकता। इसी से हम साथ मिलकर बड़े से बड़े पशुओं को भी कब्जे में कर सकते हैं। बड़े–बड़े यंत्र बना सकते हैं।
बंद मुट्ठी लाख की। और खुली तो?
लेकिन पिछले 600 साल में जो रास्ता युरोप नें अपनाया है वो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का है। उसमे भोग समूह में, भगवान को अर्पित कर के नहीं होता। हर व्यक्ति की खुशी और दुख उसके अपने होते हैं। भोग–विलास भी अपना ही। हर व्यक्ति को अपने लिए बंगला, गाड़ी, टीवी, फ्रिज इत्यादि अलग से चाहिए। इसी को हम सब ने विकास मान लिया है और घोर व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं। आज के शहरों में ऐसा संभव है कि हम बिना अपने पड़ोसी से पहचान बनाए मजे में रह सकते हैं। लेकिन जब जलवायु परिवर्तन से पानी की किल्लत होगी तब हमे बाल्टी उठा कर अपने पड़ोसी का दरवाजा ठकठकाना पढ़ेगा। वापस जाना पढ़ेगा अपनी सामूहिकता और सामाजिकता की ओर।
पर वो यात्रा आसान नहीं होगी। समझने के लिए हमें जीवाणुओं की दुनिया देखनी चाहिए। जैसे पृथ्वी हमारा घर है वैसे ही करोड़ो, अरबों सूक्ष्म जीवाणु हमारे शरीर में रहते हैं। बल्की हमारे शरीर में कुल जितनी कोशिकाएं होती हैं उनमें केवल 10 प्रतिशत हमारी अपनी होती हैं। बाकी कोई 9,00,00,000 करोड़ सूक्ष्म जीवाणु हैं जो हमारे शरीर में परजीवन करते हैं। इनमें से कई तो बहुत लाभदायक होते हैं और उनके बिना हमारा शरीर खाना तक नहीं पचा सकता।
ये जीवाणु जानते हैं की उन्हे अगर जीवित रहना है और अपनी संतति को आगे बढ़ाना है तो उन्हे मनुष्य शरीर को हानि नहीं करनी चाहिए। पर कुछेक जीवाणु ये भूल जाते हैं और अपने यजमान को बीमार कर देते हैं। फिर कभी–कभार ये जीवाणु हमें मार भी देते हैं। कुछ तो हमें इसलिए मार देते हैं कि वो किसी और शरीर में पहुँच सकें। लेकिन ज्यादातर बुखार मृत्यु का कारण नहीं बनते। क्योंकि हमारा शरीर उन्हे मारने की काबिलियत रखता है। आजकल तो हमने ऐंटीबायोटिक भी बना लिए हैं। पर हमारे शरीर में रहने वाले मित्र जीवाणु भी उन्हे मारने के लिए प्राकृतिक ऐंटीबायोटिक बनाते हैं।
हमारा पृथ्वी के प्रति बर्ताव बीमारी फैलाने वाले जीवाणुओं की तरह होता जा रहा है। हम उसे बुखार और नज़ला दे रहे हैं अपनी कार्बन की गैसों से, जो जलवायु परिवर्तन के रूप में दिख रहा है। पृथ्वी के दूसरे जीवों को हम या तो तेजी से खतम कर रहे हैं या उनका जीवन कठिन बना रहे हैं।
ये लड़ाई हम हार ही सकते हैं, जीत नहीं सकते। अगर हम अपने यजमान को मार डाले तो हमें जीवाणुओं की तरह कोई और यजमान नहीं मिलेगा। पृथ्वी छोड़ कर कोई ऐसा ग्रह नहीं है जहाँ हमारा जीवन चल सके। और अगर पृथ्वी ने अपने ऐंटीबायोटिक निकाल दिए तो हमारा बचना नामुमकिन है। अगर आज नहीं तो 20, 50, 100, 200 साल बाद।
अगर हम अपने किए जलवायु परिवर्तन को झेल कर बच पाए, तो संयुक्त राष्ट्र संघ की सौदेबाजी, बहस और संधियों की वजह से नहीं बचेंगे। अपनी साथ मिल कर कष्ट झेलने की क्षमता से बचेंगे।
ध्यान ये रखना चाहिए कि जो जितना गरीब होता है उसमे ये क्षमता ज्यादा होती है। चाहे गाँव हो या शहर, गरीब बस्ती में लोग एक दूसरे के सुख–दुख में साथ देते हैं। चूँकि जिसके पास ज्यादा साधन नहीं हो वो अपने आस–पास के लोगों को ही साधन मानता है। वैसे भी गरीब का घर इतना बड़ा नहीं होता कि वो पूरा दिन उसके भीतर घुस के ही काट दे। जिसके पास भोग विलास के अनंत उपाय हो उसके लिए दूसरे लोग अड़ंगा ही होते हैं क्योंकि वो उसके विलास का हिस्सा मार लेते हैं।
इसी भोग–विलास को हमारे अर्थशास्त्रियों ने विकास मान लिया है। पर अर्थशास्त्र में बाइबल नहीं पढ़ाई जाती। वर्ना उन्हे पता होता की दीन लोगों को ही धरती का अधिकारी माना गया है।
Categories: Climate Change
ऑस्ट्रेलियाः कोयले की कमाई और जंगल का बदला
कुछ लाख रसोइये चाहिए
Durban: A short-term victory for a long-term loss
चौमासा मीमांसा: बदलते मॉनसून के लक्षण
sundar aalekh.. saddhuwaad..
Hamara ek chhota sa prayas is dharti ko bacha sakta hai . kuchh chhota sa kam hamare goun me bhi hua hai . Aap yaha visit kr sakte hain. .
IS EARTH KA KUCHH KARNA PADEGA VARNA ANARTH HO JAYEGA.