गठबंधन के दौर में राष्ट्रपति चुनाव

[ इस लेख का संपादित रूप दैनिक नईदुनिया में छपा है ]

सोपान जोशी

तीन महीने बाद होने वाला राष्ट्रपति चुनाव हमारी राजनीति के बदलते स्वरूप का घमासान दिखने लगा है। कांग्रेस के भीतर इसपर अब तक कोई गंभीर बातचीत नहीं हुई है, और भाजपा ने हाल ही में अपना पहला पासा फेका है। छोटे दलों से ही नाम चलाए जा रहे हैं। सब जानते हैं कि दोनों बड़े दलों के पास अपने प्रत्याशी को जिताने का राजनीतिक खम है नहीं। किसी भी दल को अपने बल पर भरोसा नहीं है। मुकाबला कोई नहीं चाहता। इस सूरत में सर्वसम्मति से एक प्रत्याशी का नाम आगे कर निर्विवाद चुने जाने के आसार हैं।

अगर ऐसा नहीं होता तो इसका कारण केवल एक ही दिखता है अभी तो: कांग्रेस का तय कर लेना कि 2014 के आम चुनाव के समय राष्ट्रपति वही होना चाहिए जो उसकी हां में हां मिलाए। आज के राजनीतिक माहौल की गर्मी को देखते हुए कांग्रेस के लिए ऐसा निर्णय बहुत मंहगा पड़ेगा। पर पार्टी की मुश्किल ये है कि सर्वसम्मति के राग का रियाज़ कांग्रेस के घराने में होता नहीं है। उसके लिए जिस तरह का संवाद, जो संस्कार चाहिए वो कांग्रेस के इतिहास में ही पाए जाते हैं, वर्तमान में नहीं। इसका परिणाम ये है कि भाजपा-विरोधी दलों की बहुतायत के बाद भी कांग्रेस की गठजोड़ सरकार हर तरह की मजबूरी झेल रही है। तृणमूल की ममता बैनर्जी हों या द्रविड़ सम्राट करुणानिधि के बृहत्त परिवार के बनते-बिगड़ते रिश्ते।

तो भाजपा क्या कर रही है? भाजपा जानती है कि अगर वो किसी नाम को आगे करती है तो उसका कई तरफ से विरोध होगा। पार्टी में एक मत ये है कि किसी और को उनका नाम आगे बढ़ाना चाहिए। पर उसके उंचे नेताओं की चिंता राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी नहीं, उसके अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। भाजपा अभी तो विचार ये कर रही है कि तत्कालीन अध्यक्ष को फिर चुनने के लिए पार्टी के संविधान में संशोधन करे या नहीं। भाजपा में भी संवाद कम और घर के झगड़ों को सार्वजनिक मनोरंजन का मसौदा बनाने का स्वभाव ज्यादा है।

सोमवार को लोक सभा में प्रतिपक्ष नेता सुषमा स्वराज ने पहली बार इस विषय पर खुल के बात की, क्योंकि पार्टी के शीर्ष नेताओं में इस पर पहली बार खुल के चर्चा हुई। उन्होंने साफ किया कि कांग्रेस इस मुग़ालते में न रहे कि वो अपने मन के प्रत्याशी को चुनवा लेगी। ऐसा लगा कि उनके शब्दों मे कांग्रेस के लिए ललकार है। लेकिन साथ ही उन्होनें सहमति बनाने के लिए किवाड़ थोड़ा खुला छोड़ दिया, ये कह के कि अगर समाजवादी पार्टी, तृणमूल और राष्ट्रवादी कांग्रेस किसी नाम पर सहमति बना लेते हैं तो भाजपा ऐसे प्रत्याशी पर राजी हो सकती है।

संवादहीनता की जमीन पर सौदेबाजी के पौधे अच्छे पनपते हैं। सौदेबाजी के लिए भी ऐसा नाम चाहिए जिसपर अलग-अलग मत के लोग लेन-देन की बात करने के लिए राजी हो जाएं। उससे भी ज्यादा जरूरत है ऐसे लोगों की जो बिना दिखे-सुने तरह-तरह के राजनेताओं को भरोसे में लेकर बात कर सके। क्योंकि जो नाम बाहर आ जाएंगे उन पर विभिन्न दलों का मत भी जग जाहिर हो जाएगा।

कांग्रेस को लोग ढूंढ़ने पड़ेंगे जो लीक से हट कर सोच सके, जो कल्पनाशील हों। कुछ वैसे ही जैसे 2002 में भाजपा के प्रमोद महाजन और उनके गठबंधन के संयोजक चंद्रबाबू नायडू ने किया था। दोनों ने मिलकर आखिरी समय पर अब्दुल कलाम (और लोक सभा अध्यक्ष के लिए बालयोगी) का नाम आगे कर दिया था। दोनों नामों से हर दल को आश्चर्य हुआ और समझ में नहीं आया कि विरोध कैसे करें। नतीजा था सर्वसम्मति। इस बार न तो ऐसे लोग दिखाई पड़ रहे हैं जो नैपथ्य से मंच का संचालन कर सकें और न ही है ऐसा कोई नाम जिस के आगे आते ही विरोधियों के तेवर नर्म पड़ जांए।

जो कुछ हो रहा है वो क्षेत्रीय दल ही कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोट मांगने कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ही उनका मुँह ताकना पड़ेगा। जिन नामों की कीमत इस दौरान बढ़ेगी वो हैं – मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, ममता बैर्नजी, जयललिता, नितीश कुमार, नवीन पटनायक, करुणानिधि। ऐसा कहा जा रहा है कि मुलायम सिंह यादव किसी मुसलमान को ही राष्ट्रपति बनवाना चाहते हैं, जिससे अल्पसंख्यकों में विश्वास बढ़े। उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का नाम लिया। कांग्रेस में उनके नाम को बहुत सराहा नहीं जाता।

आज जो नाम चल रहे हैं उनके प्रति राजनीतिक रवैय्या घिसापिटा ही है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी पुराने कांग्रेसी चावल हैं जिनमें हर राजनीतिक दल से संवाद बना कर रखना और व्यव्हार में बढ़प्पन है। उनकी दावेदारी में योग्यता भी है। पर कांग्रेस की भीतरी बातचीत में ये साफ कर दिया गया है कि उनकी जरूरत सरकार और संसद चलाने में कहीं ज्यादा है, इसलिए उनका नाम आगे रखना संभव नहीं है। अगर रखें तो ममता बैनर्जी का विरोध स्वभाविक होगा, जिसे काटने की कीमत चुकानी होगी, फिर चाहे वो जो भी हो। कांग्रेस के स्वनामधन्य परिवार को ये डर भी हो सकता है कि प्रणवबाबू दरबारी स्वभाव से आगे भी सोच सकते हैं, स्वच्छंद विचार भी रख सकते हैं।

इस वजह से कांग्रेस को उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ज्यादा मुफीद लगते हैं। उनके 2007 में उपराष्ट्रपति चुने जाने में वामपंथी दलों का खासा योगदान था। इसलिए ममता बैनर्जी का विरोध तो आड़े आएगा ही, भाजपा को भी उनका चुनाव स्वीकार्य नहीं होगा। अगर 2014 के चुनाव में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता, तो राष्ट्रपति का पद केवल संवैधानिक ही नहीं होगा।

ये भी अटकलें लगाई गयी हैं कि किसी गैर-राजनीतिक व्यक्ति को चुना जाए। राजनीति के गिरते हुए स्तर को देखते हुए ऐसी बात कर्णप्रिय लगती है। लेकिन असल में ये कुछ ऐसा ही है कि किसी क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर किसी हॉकी खिलाड़ी को बैठा दीजिए क्योंकि क्रिकेट में बहुत भ्रष्टाचार है।

राष्ट्रपति किसी दल विषेश का पक्षपात करे ये ठीक नहीं है, लेकिन उनका गैर-राजनीतिक होना संभव ही नहीं है। संतो का सीकरी जाना एक बात है, सीकरी की गद्दी पर बैठ जाना बिल्कुल ही अलग। फिर वो संत नहीं रहते।



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