सोपान जोशी [ इस लेख का संपादित रूप ‘तहलका’ के मई 18 के अंक में छपा है ]
इतने लिखने वाले कभी नहीं रहे जितने आज हैं। पढ़ने की सामग्री भी इतनी कभी नहीं रही। छापना-छपाना तो लिखने से भी सरल हो गया है। इंटरनेट के सौजन्य से तो हर साक्षर मनुष्य अपने आप को लेखक मान सकता है। ये बढ़ोतरी आकार की ज्यादा है, प्रकार की थोड़ा कम। लोगों की लिखाई बहुत बेहतर हुई हो ऐसा लगता नहीं है। क्योंकि ये रोना भी कई रोते हैं कि पाठक नहीं मिलते।
हर लिखने वाले में एक पाठक भी होता है। हम अपने अंदर बैठे पाठक से पूछें तो जवाब आसानी से मिल जाएगा: सहज ही मन छू ले ऐसी लेखनी आसानी से नहीं मिलती। जिस किसी को ये बात कचोटती हो उसे भवानी प्रसाद मिश्र की बगल में छपी कविता ‘कवि’ काम की लगेगी। बात कवि अपने आप से कर रहे हैं, पर सुनाई पड़ता है हर उस बोलने-सुनने वाले को जो हम सब के भीतर बैठा है, भावनाओं के टेलिफोन एक्सचेंज के ऊपर।
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“कलम अपनी साध
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध।”
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कलम को साधना होता है, लिखाई के पीछे बरसों की साधना होती है, और वो दिखती है छोटी-छोटी बातों में, छोटे से छोटे वाक्य में। लेकिन कलम सधी हुई हो तो भी केवल दूसरों की बात तोते की तरह रटना काम नहीं आता। पढ़ने वाला आपकी बात सुनने बैठा है, ये जानने नहीं कि आप दूसरों की बातें कितना जानते हैं। और बात भी एक या आधी ही हो तो बेहतर। रद्दी की तरह तोल कर दिए विचार बोझ बढ़ाते हैं, बोध नहीं। सुंदर कही एकाध बात रिमझिम बारिश की बूंदों की तरह तालाब भरती हैं, धीरे-धीरे। उढ़ेल के कहे हुए महावाक्य भी पढ़ने वाले को दम घोंट कर डुबो देते हैं। इसलिए एकाध ही।
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“यह कि तेरी भर न हो तो कह
और बहते बने सादे ढंग से तो बह।
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।
चीज़ ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए
बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए।
फल लगें ऐसे कि सुख–रस सार और समर्थ
प्राण संचारी की शोभा भर न जिनका अर्थ॥”
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अभिव्यक्ति की आजादी भी इसलिए नहीं है कि आप अपनी टुच्ची से टुच्ची भावना को हर किसी पर मढ़ें। अपनी ही शेखी न बघारें। लिखाई एक शब्द का दूसरे शब्दों से तालमेल है। ये सरल और तरल रहे तो पढ़ने वाला भी आपके साथ बहेगा। दूसरों का मन छूने के लिए उन्हीं की भाषा बोलनी होती है। लिखने और पढ़ने से पहले, बहुत पहले भाषा बोली जाती है। शब्द और उनके अर्थ हम अपने माता-पिता की गोद में सीखते हैं, कालिदास और प्रेमचंद बहुत बाद में आते हैं। बोली हुई भाषा का असर देखना हो तो 50 और 60 के दशक के हिंदी गाने सुनिए, जिन्हें आज भी लोग मन ही मन गुनगुनाते हैं। या और पीछे जाइये, अनपढ़ कबीर के छंद तक, जिसे करोड़ों लोग आज भी अपने सुख-दुख में याद करते हैं, जिनमें न जाने कितने कबीर की ही तरह अनपढ़ हैं।
सादगी और सरलता का मतलब ऊब नहीं होता। वर्ना हम देश-विदेश के पकवान खाने के बाद भी घर के भोजन को तरसते नहीं। मां के भोजन का स्वाद ऐसा चढ़ता है कि कभी नहीं उतरता। अच्छा लिखने वालों के पाठक भी उनके लिखे का वैसे ही इंतजार करते हैं। मसला ये है कि आपके लिखे में स्वाद कितना है, ये नहीं कि मसाला कितना है। हर ठीक कही बात आगे होने वाली बातों का रस्ता साफ़ करती है। जैसे ठीक लिखा एक वाक्य पाठक को अगले वाक्य तक ले कर जाता है। जुमलों की बेल पर जो फल लगते हैं उन्हें पढ़ने वाला खा सकता है, रस और अर्थ पा सकता है, समझ बढ़ाने का सामर्थ्य भी पाते हैं। उनका काम केवल पन्ने भरना नहीं होता, केवल तनख्वाह पाना भर नहीं होता।
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“टेढ़ मत पैदा कर गति तीर की अपना
पाप को कर लक्ष्य कर दे झूठ को सपना।
विंध्य रेवा फूल फल बरसात और गरमी
प्यार प्रिय का कष्ट कारा क्रोध या नरमी।
देश हो या विदेश मेरा हो कि तेरा हो
हो विशद विस्तार चाहे एक घेरा हो।
तू जिसे छू दे दिशा कल्याण हो उसकी
तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी॥”
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जहां कहने वाले ज्यादा हों वहां बात उसकी सुनी जाती है जो सीधे बात करे। घुमा-घुमा कर जलेबी अच्छी बनती है, जुमले नहीं। कम शब्दों में सीधी कही बात समझ में जल्दी आती है, सच्चाई को ठीक से बताती है। झूठ फैलाने के लिए उलझन बढ़ाना जरूरी होता है। ज्यादा शब्द उन्हें और ज्यादा चाहिए रहते हैं जिन्हें साफ नहीं पता होता कि उन्हें कहना क्या है।
अच्छी लिखाई मौके या जगह की मोहताज नहीं होती। उसे बहुत ज्यादा प्रेरणा की जरूरत भी नहीं होती। अपनी बात कहना और ठीक से करना अपने आप में प्रेरणा है। उसके लिए अति अनुरागी होना जरूरी नहीं है। उसकी भावनाओं के पर्यावरण में हवा-पानी का संतुलन रहता है, चाहे मौसम जो भी हो। अगर हालात फायदेमंद हों तो उस खुशी में उसके जुमले बौराते नहीं हैं। दुख कें संताप से उसकी कलम कांपती नहीं है। चाहे वो बात उसी सुख या दुख की हो।
लिखाई में लिखने वाले का दायरा साफ दिखता है, फिर चाहे वो अपनी गली में दहाड़ता शेर हो या किसी नई जगह तबादला हो कर आया कारिंदा। हमारी दुनिया हमारे दायरे से बनती है और जिसका दायरा जितना बड़ा हो उसके संस्कार उतने ही सहज में उसे दूसरों से जोड़ते हैं। हमारे दौर के राजनेताओं के दायरे अपनी जात, अपने प्रांत तक सिकुड़ते जा रहे हैं। दलितों का नेता दलित ही हो सकता है, मराठियों का कोई मराठी ही। हिंदी बोलने वाली दुनिया का दायरा एक समय पूरे देश में था, क्योंकि हिंदी वाले बस अपनी ही गली के शेर नहीं थे। आज हिंदी में मलयाली या अरुणाचली या ओड़िया नाम इसलिए गलत लिखे जाते हैं कि लिखने वाले अपने मलयाली या अरुणाचली या ओड़िया मित्रों से पूछने की बजाए अंग्रेजी में पढ़ कर हिंदी में तुक्का लगाते हैं।
लिखाई में इन बातों का ध्यान रखने वाला जिस भी विषय पर लिखे, उसका असर पढ़ने वाले पर अच्छा ही हो सकता है। अच्छे विचार अच्छी लिखाई की गाड़ी में ही चल सकते हैं। ये बात हर उस व्यक्ति को सहज ही पता होती है जिसकी बात दूसरे निस्वार्थ सुनते हैं। भवानीबाबू नें यही बात हमें सुंदर गढ़े छंद में याद दिलाई थी। आज भी दिलाते हैं, उनकी मूत्यु के 27 साल बाद और उनके जन्मे के 100वें साल में।

Brilliant.