उर्वरता की हिंसक भूमि

सन् १९०८ में हुई एक वैज्ञानिक खोज ने हमारी दुनिया ही बदल दी है।
शायद ही किसी एक आविष्कार का इतना गहरा असर इतिहास में हो।
आज हम में से हर किसी के जीवन में इस खोज का असर सीधा दीखता है।
इससे मनुष्य इतना खाना उगाने लगा है कि एक शताब्दी में ही
चौगुनी बड़ी आबादी के लिए भी अनाज कम नहीं पड़ा। लेकिन इस आविष्कार
ने हिंसा का भी ऐसा रास्ता खोला है जिससे हमारी कोई निजाद नहीं है।
दो विश्व युद्धों से ले कर आतंकवादी हमलों तक। जमीन की पैदावार बढ़ाने
वाले इस आविष्कार से कई तरह के वार पैदा हुए हैं, चाहे विस्फोटकों के रूप में और
चाहे पर्यावरण के विराट प्रदूषण के रूप में।

जय जवान, जय किसान का एक कड़वा सच भी है

जय जवान, जय किसान का एक कड़वा सच भी है

सोपान जोशी

एक धमाका हुआ था १७ अप्रैल २०१३ को। इसकी गूंज कई दिनों तक दुनिया भर में सुनाई देती रही थी। अमेरिका के टेक्सास राज्य के वेस्ट नामक गाँव में हुए विस्फोट से फैले इस दवानल ने १५ लोगों को मारा था और कोई १८० लोग घायल हुए थे। हादसे तो यहाँवहाँ होते ही रहते हैं और न जाने कितने लोगों को मारते भी हैं। लेकिन यह धमाका कई दिनों तक खबर में बना रहा। इससे हुए नुकसान के कारण नहीं, जिस जगह यह हुआ था उस वजह से।

 

धमाका किसी आतंकवादी संगठन के हमले से नहीं हुआ था। उर्वरक बनाने के लिए काम आने वाले रसायनों के एक भंडार में आग लग गयी थी। कुछ वैसी ही जैसी कारखानों में यहाँवहाँ, कभीकभी लग जाती है। दमकल की गाड़ियां पहुँची और अग्निशमक दल अपने काम में लग गया। लेकिन उसके बाद जो धमाका हुआ उसे आसपास रहने वाले लोगों ने किसी भूचाल की तरह महसूस किया। अमेरिका के भूगर्भ सर्वेक्षण के उपकरणों ने इस धमाके को २.१ की प्रबलता के भूकंप की तरह दर्ज किया। धुँए से जीवन कई रोज तक अस्तव्यस्त रहा। इससे इतनी गर्मी निकली कि आसपास के भवन जले हुए ठूँठ से दिखने लगे थे। लेकिन यह कोई अणु बम नहीं था।

 

कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट नाम के रसायन का भंडार था, जिसका उपयोग यूरिया जैसी बनावटी खाद बनाने के लिए होता है। इस खाद से फसलों की पैदावार में धमाकेदार बढ़ोतरी होती है। उर्वरक के कारखाने में यह पहला धमाका नहीं था। सन् २००९ में टेक्सास राज्य में ही जुलाई ३० को ब्राएन नामक नगर में ऐसे ही एक कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट के भंडार में धमाका हुआ था। किसी की जान नहीं गई थी। पर ८०,००० से ज़्यादा लोगों को निकाल कर नगर खाली करना पड़ा था जहरीले धुँए से बचने के लिए।

 

सन् १९४७ में टेक्सास सिटी ही में ऐसी तरह के एक हादसे में ५८१ लोग मारे गए थे। दमकल विभाग के कर्मचारियों में केवल एक जीवित बचा था। दो छोटे हवाई जहाज उड़तेउड़ते नीचे गिर पड़े थे। धमाका इतना भयानक था कि उससे निकली तरंगों से ६५ किलोमीटर दूर घरों के शीशे टूट गए थे। टेक्सास सिटी डिज़ास्टर के नाम से कुख्यात यह अमेरिका की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना मानी गई है। इसे घरती पर आज तक के हुए सबसे शक्तिशाली धमाकों में गिना जाता है।

 

दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे ही हादसे छोटेबड़े रूप में होते रहे हैं। इनको जोड़ने वाली कड़ी है उर्वरक के कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट। आखिर खेती के लिए इस्तेमाल होने वाले इस रसायन में ऐसा क्या है कि इससे इतनी तबाही मच सकती है? यह जानने के लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा, उन कारणों को जानना पड़ेगा जिनसे हरित क्रांति के ये उर्वरक तैयार हुए थे। यह किस्सा शुरु होता है बीसवीं शताब्दी के साथ।

 

औद्योगिक क्रांति की वजह से यह समय युरोप में उथलपुथल का था। युरोपीय देशों में राष्ट्रवाद एक बीमारी की तरह फैल चला था और पड़ोसी देशों में उन्मादी होड़ पैदा कर रहा था। आबादी बहुत तेजी से बढ़ी थी, जिसका एक कारण यह था कि विज्ञान ने कई विकट बीमारियों के इलाज ढूँढ़ लिए गए थे। कारखानों में काम करने के लिए लोग गाँवों से शहरों में आ रहे थे। इतने लोगों को खिलाने जितनी पैदावार युरोप के खेतों में नहीं थी।

 

कृषि वैज्ञानकों के अनुसंधान से यह पता चल चुका था कि हर तरह के पौधों में खास उर्वरक नाइट्रोजन, फ़ॉसफ़ोरस और पोटॅशियम होते हैं। यह भी कि इन्हें पाने में सबसे कठिन नाइट्रोजन के उर्वरक होते हैं। नाइट्रोजन की हवा में तो खूब भरमार है, लेकिन किसी के पास ऐसा तरीका नहीं था जो उसे हवा से खींच कर ऐसे रासायनिक रूप में लाए जो पौधे के काम आसानी से आ जाए। पौधे उसे अपनी खुराक में सोख लें।

 

खेतों में उर्वरता बढ़ाने के लिए, नाइट्रोजन के उर्वरक पाने के लिए युरोप दुनिया के कोनेकोने खंगाल रहा था। ऐसा एक स्रोत था ‘गुआनो’। या आता था दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी छोर से दूर, प्रशांत महासागर के द्वीपों से। गुआनो असल में चिड़िया की बीट है। इन निर्जन द्वीपों पर न जाने कब से समुद्री चिड़ियाओं का वास था जो समुद्र से मछली और दूसरे प्राणियों का शिकार करती हैं।

 

अनगिनत चिड़ियों की बीट इन द्वीपों पर जम जाती थी और वहाँ इनके पहाड़ खड़े हो गए थे। बारिश कम होने के कारण यह पहाड़ जैसे के तैसे बने रहे और इनके उर्वरक गुण धुले नहीं थे। कुछ जगह तो इसके पहाड़ १५० फ़ुट से भी ऊँचे थे। कोई १,५०० साल पहले पेरू में गुआनो का उपयोग खेती में खाद की तरह होता था।

 

इंका साम्राज्य के समय समारोहों में इस गुआनो बीट का स्थान सोने के बराबर था। गुआनो शब्द की व्युतप्ति ही पेरू के क़ेचूअ समाज के एक शब्द, ‘हुआनो’ से है। एक जर्मन अंवेषक ने सन् १८०३ में गुआनो के गुण जाने, और उनकी लिखाई से पूरे युरोप का परिचय चिड़िया की बीट से निकलने वाली इस खाद से हुआ।

 

१९वीं शताब्दी में युरोप की गुआनो की ज़रूरत ही दक्षिण अमेरिका में युरोपीय रुचि का खास कारण बन गई। इस क्षेत्र पर इन्हीं कारणों से युरोपके लोगोंका कब्जा हुआ। इस के बाद गुआनो का खनन और निर्यात बहुत तेजी से हुआ। इस बीट से सैकड़ों बरसों में बने पहाड़ देखते ही देखते कटने लगे।

 

१८४० के दशक में गुआनो का व्यापार पेरू की सरकार की आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत बन गया था। विशाल जहाजों में लाद कर इसे युरोप के खेतों में डालने के लिए लाया जाता था। दुनिया के कई और हिस्सों से इसका निर्यात युरोप होने लगा। इसे निकालने के लिए चीन से अनुबंधित मजदूर भी लाए गए क्योंकि पेरू के लोग इस काम के लिए ठीक नहीं माने गए। गुआनो पर नियंत्रण रखने के लिए युद्ध तक लड़े गए।

 

वैसे भी यह पदार्थ ज्वलनशील होता है, खासकर नाइट्रोजन से मिलने का बाद। गुफ़ाओं में चमगादड़ों की बीट में आग लगने के प्रमाण भी मिलते हैं। गुआनो का उपयोग विस्फोटक बनाने में भी होने लगा था, खासकर चमगादड़ की बीट से बने गुआनो से, जिसमें विस्फ़ोटक पदार्थ ज़्यादा मिलते हैं। १९वीं सदी के अंत तक पेरू और पड़ोसी देश चिली में ही सॉल्टपीटर, यानि पोटॅशियम नाइट्रेट नाम के खनिज मिल गए थे। सॉल्टपीटर युरोप के लिए खाद का ही नहीं, विस्फ़ोटक बनाने के लिए कच्चे माल का स्रोत भी बन गया। दोनों के लिए नाइट्रोजन लगता है, पर युद्ध और खाद के नाइट्रोजन संबंध की बात बाद में।

 

इन दोनों पदार्थों को जहाज पर लाद कर युरोप ले जाना बहुत खर्चीला सौदा था। और धीरेधीरे गुआनो के पहाड़ खतम होने लगे थे। युरोप में की होड़ लगी हुई थी खाद और विस्फ़ोटक बनाने के सस्ते तरीके खोजने की, नाइट्रोजन के स्रोत की। कई देशों के वैज्ञानक इस पर शोध कर रहे थे। फिर सन् १९०८ में जर्मन रसायनशास्त्री फ़्रिट्ज़ हेबर ने हवा से नाइट्रोजन खींच के अमोनिआ बना कर दिखाया।

 

सन् १९१३ तक इस प्रक्रिया को बड़े औद्योगिक स्तर पर करने का तरीका भी खोज लिया था। बी..एस.एफ़ नाम के एक जर्मन उद्योग में काम कर रहे कार्ल बॉश ने इसे ईजाद किया था। प्रसिद्ध इंजीनियर और गाड़ियों में डलने वाले स्पार्क प्लग के आविष्कारी रॉबर्ट बॉश उनके चाचा थे।कई तरह की मशीनों पर आज भी चाचा बॉश का नाम चलता है। आगे चल कर हवा से नाइट्रोजन खींच कर अमोनिया बनाने की प्रक्रिया को दोनों वैज्ञानिकों के नाम पर ‘हेबरबॉश प्रॉसेस’ कहा गया।

 

इस समय युरोप में राष्ट्रवाद का बोलबाला था और जर्मनी और इटली जैसे देश कई छोटी रियासतों के विलय से ताकतवर बन चुके थे। राष्ट्रवाद की धौंस ही १९१४ में पहले विश्व युद्ध का कारण थी। इंग्लैंड की नौसेना ने जर्मनी की नाकेबंदी कर रखी थी इसलिए जर्मनी को गुआनो और सॉल्टपीटर मिलना बंद हो गया था। तब हवा से अमोनिआ बनाने वाली हेबरबॉश पद्धति से न केवल जर्मनी में बनावटी खाद बनती रही, युद्ध में इस्तेमाल होने वाला असला और विस्फोटक भी इसी अमोनिआ से बना। ऐसा माना जाता है कि अमोनिया बनाने का यह तरीका अगर जर्मनी के पास न होता तो पहला विश्व युद्ध दो साल के भीतर ही सन् १९१६ में ही खतम हो जाता, बजाए चार साल चलने के।

 

युद्ध के बाद वैज्ञानिक श्री फ़्रिट्ज़ और श्री कार्ल को उनकी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया। इसमें कोई विरोधाभास नहीं था। जिन अलफ़्रेड नोबेल के नाम से यह पुरस्कार दिया जाता है उन्हीं ने डाएनामाइट ईजाद किया था और बोफ़ोर्स नाम की कंपनी को इस्पात बनाने से हटा कर विस्फ़ोटक के उत्पादन में लगाया था। पुरस्कार पाते वक्त श्री फ़्रिट्ज़ ने अपने भाषण में कहा कि इस अविष्कार के पीछे उनका ध्येय उस नाइट्रोजन को मिट्टी में वापस पहुँचाना था जो फ़सल के साथ निकल आती है।

 

लेकिन यह सभी को पता था कि उनका एक ध्येय और था, जिसके पीछे था उनका राष्ट्रवाद। प्रतिक्रियाशील रूप में नाइट्रोजन विस्फ़ोटक भी बनाती है। उन्होंने कहा था कि शांति के समय वैज्ञानिक सभी लोगों के भले के लिए काम करता है, पर युद्ध के समय वह केवल अपने देश का होता है।

 

सन् १८७१ में जर्मन भाषा बोलने वाले प्रांतों में सबसे बड़ा राज्य प्रशिया फ़्रांस के साथ युद्ध लड़ रहा था। इस युद्ध के दौरान जर्मन भाषा बोलने वाले दूसरे राज्य भी प्रशिया के झंडे के नीचे एक सम्राज्य के रूप में जुड़ गए थे। जर्मन राष्ट्र का उदय हुआ था। इस युद्ध ने युरोप की राजनीति बदल दी थी। इकट्ठे होने से जर्मन राज्यों में राष्ट्रवाद की लहर चल रही थी। श्री फ़्रिट्ज़ भी इससे अछूते नहीं थे। उनका शोध केवल हवा से नाइट्रोजन खींचने तक सीमित नहीं था। उन्हीं की एक और ईजाद थी युद्ध में इस्तेमाल होने वाली जहरीली गैस। उनका कहना था कि वे ऐसा हथियार ईजाद करना चाहते थे जो उनके देश को जल्दी से जीत दिला सके।

 

ऐसा ही एक हथियार था क्लोरीन गैस, जिसको इस्तेमाल कर के श्री फ़्रिट्ज़ ने रासायनिक युद्ध की शुरूआत की थी। उन्हें आज भी रासायनिक हथियारों के जनक की तरह याद किया जाता है। पहली बार युद्ध के दौरान जहरीली गैस का उपयोग २२ अप्रेल १९१५ को हुआ। इसके निर्देशन के लिए श्री फ़्रिट्ज़ खुद बेलजियम गए थे।

 

वापस लौटने पर इसे ले कर उनकी पत्नि क्लॅरा से उनकी बहस हुई थी। सुश्री क्लॅरा रासायनिक हथियारों को अमानवीय मानती थीं, और इसलिए वे इसे बनाने और दूसरे पक्ष पर इसका उपयोग एक अक्ष्मय मानती थी। इस घटना के दस दिन बाद ही सुश्री क्लॅरा ने अपने पति की पिस्तौल को अपने ही पर चला कर आत्महत्या कर ली और अपने १३ साल के बेटे हरमॅन की गोदी में प्राण त्याग दिए थे।

 

श्री फ़्रिट्ज़ अगले ही दिन रासायनिक हथियारों को रूस की सेना पर इस्तेमाल करवाने के लिए लड़ाई के मोर्चे पर चले गए थे।

 

सन् १९१८ में जर्मनी की हार हो गई। विश्व युद्ध खतम हुआ। लेकिन अब अमोनिया बनाने के कई कारखाने युरोप और अमेरिका में बनने लगे थे। अमेरिका में हेबरबॉश पद्धति का पहला कारखाना सन् १९२० में बना। युरोप का माहौल तो राष्ट्रवादी ही बना रहा और बीस साल में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। हेबरबॉश पद्धति को अब तक हर कहीं अपना लिया गया था और विस्फ़ोटक बनाने के लिए ढेर सारा अमोनिया हर देश के हाथ लग गया था। दूसरा विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद इन कारखानों को बंद नहीं किया गया। यह तो सबको पता था कि अमोनिया से बनावटी उर्वरक भी बनाए जा सकते हैं। तो इन कारखानों को यूरिया की खाद बनाने में लगा दिया गया।

 

इसी दौरान मक्का और गेहूँ की ऐसी फ़सलें भी ईजाद हुईं जो इस यूरिया को मिट्टी से उठाने में सक्षम थीं। यह फ़सलें बहुत तेजी से बढ़ती थीं और इनमें अनाज की पैदावार बहुत ज़्यादा थी। इन फ़सलों और यूरिया के संयोग से ही हरित क्रांति हुई। खेती में उत्पादन इतना बढ़ गया जितना कभी नहीं बढ़ा था। इन फ़सलों को ईजाद करने वाले कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन बोरलॉग को भी श्री फ़्रिट्ज़ की ही तरह नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

 

एक मोटा अंदाज़ा बताता हैं कि हेबरबॉश पद्धति से जितनी जमीन से १९ लोगों का भोजन पैदा होता था उतनी ही जमीन आज ४३ लोगों का भोजन पैदा करती है। एक विख्यात वैज्ञानिक का अनुमान है कि दुनिया की कुल आबादी का ४० फ़ीसदी हिस्सा इसी पद्धति से उगा खाना खाता है। इतने भोजन के होने से और जानलेवा बीमारियों के इलाजों की खोज होने से मनुष्य को इतनी शक्ति मिली जितनी कभी नहीं मिली थी। २०वीं शताब्दी में मनुष्य की आबादी चौगुनी बढ़ गई। बी..एस.एफ़ नाम की जिस कंपनी के लिए श्री कार्ल काम करते थे वह आज दुनिया की सबसे बड़ी रसायन बनाने वाली कंपनी है।

 

श्री फ़्रिट्ज़ की पद्धति ने दुनिया बदल दी है। कारखानों में पैदा होने वाले अमोनिया के असर को कई वैज्ञानिक बीसवीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार मानते हैं। हवा से नाइट्रोजन खींचने के लिए बहुत तेज तापमान और दबाव में पानी से हाइड्रोजन निकाला जाता था। इतना दबाव और गर्मी बनाने के लिए बहुत सी ऊर्जा खर्च होती थी। आज इस पद्धति को और कारगर बनाया गया है और पानी की जगह प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल होता है।

 

आज नाइट्रोजन और अमोनिया का जिक्र पैदावार के संदर्भ में कम और प्रदूषण के कारण ज़्यादा होता है। हमारे देश में ही सस्ते यूरिया के ताबड़तोड़ इस्तेमाल से जमीन के रेतीले और तेजाबी होने का खतरा बढ़ता जा रहा है। किसानों को सस्ते बनावटी उर्वरकों का इतना नशा हो चुका है कि जमीन बिगड़ती दिख रही हो फिर भी वे यूरिया डालते ही जाते हैं। यूरिया से लंबे हुए पौधों पर फ़सलों को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़े ज़्यादा आते हैं। इसलिए उन पर कीटनाशकों का छिड़काव भी ज़्यादा ही किया जाता है।

 

इस तरह हम आज नाइट्रोजन की भरमार के युग में जी रहे हैं। विज्ञान हमें बता रहा है कि नाइट्रोजन के प्राकृतिक चक्र में मनुष्य ने इतना बदलाब ला दिया है कि यह कार्बन के उस चक्र से भी ज़्यादा बिगड़ गया है, जिसकी वजह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। जमीन पर छिड़के नाइट्रोजन के यूरिया जैसे उर्वरकों का अधिकांश हिस्सा पौधों में नहीं जाता। आज हेबरबॉश पद्धति से बने उर्वरक का खेती में इस्तेमाल १० करोड़ टन है। इसमें से लोगों के भोजन में केवल १.७ करोड़ टन वापस आता है। बाकी पर्यावरण को दूषित करता है।

 

यह पानी के साथ बह के जल स्रोतों में पहुँचता है, जहाँ इसकी मौजूदगी जहरीली काई का रूप लेती है। यह पानी से प्राणवायु खींच लेती है और नीचे समस्त जीवन का दम घुटता है। ऐसे ही बरबाद होने वाले नाइट्रोजन का एक अंश प्रतिक्रियाशील हो कर वातावरण में जाता है और जलवायु परिवर्तन करता है।

 

लेकिन हेबरबॉश पद्धति का एक और असर है। अमोनिया के कारखाने बनाने में हर देश का सैनिक ध्येय भी होता है। युद्ध के समय यही कारखाने विस्फ़ोटक और हथियार बनाने के काम में आ सकते हैं। हेबरबॉश पद्धति ईजाद हुए सन् २०१३ में १०० साल हो चुके हैं। पिछले सौ सालों में विस्फ़ोटक बनाने का का कच्चा माल हेबरबॉश पद्धति से ही आने लगा है। इस पद्धति से बने असले ने दुनिया भर के सशस्त्र संघर्षों में सीधेसीधे १०१५ करोड़ लोगों की जान ली हैं । अपरोक्ष रूप में अनगिनत लोग हवा खींचने के इस धमाकेदार आविष्कार की बलि चड़े हैं।

 

इस पद्धति के जितने नाटकीय असर दुनिया पर रहे हैं उनसे श्री फ़्रिट्ज़ भी बच नहीं पाए। उन्हें नोबेल पुरस्कार जैसे सम्मान मिले और उन्होंने फिर से शादी भी की। पर वे खुश नहीं रह पाए। इस दौरान जर्मन राष्ट्रवाद ने एडॉल्फ़ हिटलर की नाज़ी पार्टी का रूप ले लिया था। नाज़ी शासन की रासायनिक हथियारों में बहुत रुचि थी। उसने श्री फ़्रिट्ज़ के सामने शोध के लिए धन और सुविधाओं का प्रस्ताव रखा।

 

पर इस दौरान नाज़ी पार्टी की यहूदियों के प्रति नफ़रत उजागर हो चुकि थी। कई प्रसिद्ध यहूदी वैज्ञानिक जर्मनी छोड़ कर इंग्लैंड और अमेरिका जा रहे थे, जिनमें एलबर्ट आइंस्टाइन भी शुमार थे। श्री फ़्रिट्ज़ ने इसाई धर्म कबूल कर लिया था, लेकिन सब जानते थे कि वे एक यहूदी परिवार में जन्में थे। सन् १९३३ में वे जर्मनी छोड़ कर इंग्लैंड में केम्ब्रिज आ गए। वहाँ से वे यहूदियों को दी गई जमीन की ओर फ़िलिस्तीन की ओर निकले (आगे चल कर यही इज़्राइल देश बना)। रास्ते में ही स्विट्ज़रलैंड में उनका निधन हो गया।

 

उनकी मौत के बाद उनका परिवार जर्मनी छोड़कर भागा। उनकी दूसरी पत्नी और दो बच्चे इंग्लैंड आ गए थे। उनके बड़ा बेटा हॅरमन अमेरिका चला गया, जहाँ सन् १९४६ में उसने भी खुदकुशी कर ली। अपनी माँ की ही तरह उन्हें भी श्री फ़्रिट्ज़ के रासायनिक हथियार बनाने की शर्म सताती थी। रासायनिक हथियारों पर श्री फ़्रिट्ज़ के शोध को नाज़ी सरकार ने बहुत आगे बढ़ाया। उसी से ज़ाएक्लॉनबी नाम की गैस बनी, जिसका इस्तेमाल बाद में नज़रबंदी शिविरों में यहूदियों को मारने के लिए होता था। ऐसा कहा जाता है कि श्री फ़्रिट्ज़ के कुनबे और समाज के कई लोग इन शिविरों में इसी गैस से मारे गए थे।

 

इस तरह उर्वरता बढ़ाने वाली खाद ने अनाज का उत्पादन तो बढ़ाया ही, लेकिन साथ ही उसने एक और हिंसक रूप भी धारण किया। हिंसा की जमीन भी उसने पहले से कुछ ज़्यादा उर्वरक बनाई।

 


[ यह लेख ‘गाँधी मार्ग’ पत्रिका के सितंबर-अक्तूबर २०१३ के अंक में छपा है ]



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