पत्थर तोड़ने की राजनीति में तेलंगाना

[ लेख का संपादित अंश दैनिक हिंदुस्तान के संपादकीय पन्ने पर १९ फ़रवरी २०१४ को छपा था ]

सोपान जोशी

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तो तेलंगाना बनेगा। संसद ने कानून बना दिया है। राजनीतिक बहस का ध्यान अब नए राज्य के लोकसभा चुनाव पर असर की ओर जाएगा। संसद में मिर्च की फुहार छोड़ने वाले सांसद श्री राजगोपाल राजनीति छोड़ने का बयान दे चुके हैं। राजनीति उन्हें छोड़ेगी या नहीं ये ठीक से कहा नहीं जा सकता।

 

कई और विषयों की ही तरह तेलंगाना पर भी काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में सम्मति है। भाजपा के लिए यह मौका है काँग्रेस सांसदों के दुर्व्यवहार और संसद की गरिमा पर चोट होने की नैतिक टिप्पणी करने का। क्योंकि सीमांध्र के इलाके में भाजपा की कोई मौजूदगी ही नहीं है। ऐसे में भाजपा को यह याद नहीं रहता कि इस संसद के कितने दिन उनके शोरशराबे की बलि चढ़े हैं। मुश्किल तो काँग्रेस की है। उसके सांसद सीमांध्र से भी हैं और तेलंगाना से भी। पार्टी ने कई साल पहले तेलंगाना बनाने का वाएदा किया था। पर उसी के सदस्यों के आपसी टकराव की वजह से मामला अब तक अटका हुआ था। इस विधेयक के अब पारित होने के पीछे २०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए काँग्रेस की तिकड़म भी है।

 

आंध्र प्रदेश की राजनीति जानने वाले बताते हैं कि सीमांध्र के सांसद के विरोध के पीछे केवल हैदराबाद शहर का तेलंगाना में चले जाना है। सीमांध्र के उद्योगपतियों का हजारों करोड़ रुपए का निवेश हैदराबाद में है। तेलंगाना के लोग सीमांध्र की दादागिरी की दुहाई देते हैं, और अपनी बदहाली के वजह सीमांध्र के लोगों की मौकापरस्ती बताते हैं। तेलंगाना बनाने के आंदोलन में बीसियों लोगों ने खुदकुशी की है और कई तरह की हिंसा दोनों तरफ़ से हुई है।

 

ऐसी उथलपुथल और इतने शोर के बीच में एक बार पीछे झाँक कर भी देखना चाहिए। भाषा पर आधारित राज्य बनाने का रिवाज हमारे यहाँ अँग्रेज़ हुकूमत में ही शुरू हो चुका था। युरोप में भाषाई राष्ट्रवाद की जिस लहर ने आज से ठीक सौ साल पूर्व पहला विश्व युद्ध शुरू किया था वह भारत भी पहुँच गयी थी। भाषा के आधार पर ओडीशा और बिहार अलग प्रांत सन् १९३६ में बने।

 

आज़ादी के बाद १९५० के दशक में नए राज्य बनाने का आधार था भाषा। देश के कुछ हिस्सों में भाषाई राज्य बनाने के लिए दंगे तक हुए। कई प्रांतों में एक भाषा के लोग दूसरी भाषा पर आधारित राज्य में रहना ही नहीं चाहते थे। मद्रास प्रेसिडेंसी के उत्तर में तेलुगू बोलने वाले इलाके में कुछ लोग तमिलभाषी इलाके से अलग होना चाहते थे। इनमें गाँधीवादी सत्याग्रही पोट्टी श्रीरामुलू भी थे, जो १९ अक्टूबर १९५२ को तेलुगूभाषी इलाके को अलग राज्य बनवाने के लिए मद्रास में (आज का चेनै) भूख हड़ताल पर बैठ गए थे। लगभग दो महीने के उपवास के बाद १६ दिसंबर को उनकी मौत हो गई।

 

उनकी शवयात्रा के दौरान मद्रास में दंगा हुआ। आगजनी और हिंसा तेलुगू बोलने वाले इलाके में फैलती गई। श्री श्रीरामुलू की मृत्यु के तीन दिन बाद ही तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तेलुगूभाषी इलाके को आंध्र प्रदेश नामक अलग राज्य बनाने की घोषणा की। मद्रास शहर पर तेलुगूभाषी लोगों को अपना अधिकार छोड़ना पड़ा, हालाँकि जिस घर में श्री श्रीरामुलू की मृत्यु हुई उसे आंध्र सरकार ने संग्रहालय जैसा बना दिया। आंध्र प्रदेश की राजधानी करनूल शहर को बनाया गया। कालांतर में हैदराबाद की रियासत में आने वाले तेलंगाना प्रांत का भी आंध्र प्रदेश में विलय हो गया।

 

इस विलय को ले कर तेलंगाना और आंध्र के भीतर कई लोगों की असहमति थी। सन् १९६९ में तेलंगाना को अलग करने के लिए आंदोलन हुआ और हिंसा भी हुई, जसके जवाब में पुलिस की गोली से ३६९ लोगों की जान गई। तीन साल बाद तटवर्ती आंध्र में भी अलग होने का आंदोलन हुआ, और वहाँ भी हिंसा हुई। सन् १९९६ से चल रहे आंदोलन के वजह से हाल ही में संसद ने तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का कानून पारित कर दिया। इस आंदोलन में कई लोगों ने खुदकुशी की है, जिसकी वजह तेलंगाना का न बनना बताई गई।

 

अब आकर तेलंगाना का अलग होना भाषाई राजनीति के लिए सबक है। लेकिन ये सबक सीखेगा कौन? मुंबई में शिव सेना का उदय मराठीभाषी लोगों को गुजरातीभाषी और दक्षिण भारत से आए लोगों के ख़िलाफ़ खड़ा करने से हुआ था। आज इस भाषाई राजनीति के निशाने पर उत्तर भारत से आए लोग हैं। अगर मुंबई में केवल मराठीभाषी लोग ही बचे तो यह भाषाई राजनीति लड़ख़ड़ा के ढेर हो जाए।

 

वैसे भी मराठी बोलने वाले विदर्भ प्रांत में अलग राज्य की माँग चल ही रही है। वहाँ भी लोग महाराष्ट्र से अलग होने के लिए कुछ वैसे ही तर्क देते हैं जैसे तेलंगाना के लोग देते हैं सीमांध्र के लोगों के बारे में। इस सुगबुगाहट को तेलंगाना के जैसा आंदोलन बन जाने में कितनी देर लगेगी कोई नहीं जानता। क्योंकि आग अपने फैलने के पहले कोई प्रेस विज्ञप्ति नहीं भेजती है। और आग उनको भी नहीं बक्शती जो आग से खेलते हैं।

 

जो लोग महाराष्ट्र और मुंबई पर मराठीभाषी सत्ता की माँग करते हैं उन्हें पहले विदर्भ के मराठीभाषियों का दुखदर्द टटोलना चाहिए। लेकिन हमारी चुनावी राजनीति में इतना दूर देख कर चलने की गुंजाइश नहीं है। खासकर दसियों खबरी टी.वी. चैनलों की मौजूदगी में। इनकी खबरों की होड़ छोटी से छोटी घटना होने पर आग में घी का काम करती है।

 

सबक तो तेलंगाना के बनने में उन आँचलिक पार्टियों के लिए भी है जिनका उदय गठबंधन की राजनीति का मूल कारण है। इनकी मजबूती अपनेअपने इलाके में केंद्रीय पार्टियों का खौफ़ खड़ा करने से चलती है। कई सालों तक भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्कसवादी) पश्चिम बंगाल में केंद्र का हौव्वा बता कर समर्थन खड़ा करती रही और सफल भी रही। लेकिन उत्तरी बंगाल में गोरखालैण्ड की माँग को लगातार माकपा नकारती रही। वहाँ उसका स्वरूप ठीक वही था जो उसके समर्थकों के बीच केंद्रीय सत्ता का था। कई सालों बाद माकपा पिछला विधानसभा चुनाव हार गई और ममता बैनर्जी मुख्यमंत्री बनी। गोरखालैण्ड पर माकपा और सुश्री ममता में सम्मति है, और मुख्यमंत्री महोदया ने तेलंगाना के बनने के खिलाफ़ बयान दिए हैं।

 

भाषा, पहचान और क्षेत्रियता की राजनिति की एक मियाद होती है। कुछ समय बाद उसमें सड़ाँध आ जाती है। सड़न के बाद ऐसी राजनीति को खाद बनने में देर नहीं लगती। लेकिन इस बननेबिगड़ने का कालरूप इतना बड़ा होता है कि हम सब आजकल की बात को परमसत्य मान लेते हैं।

 

छोटे राज्यों की माँग करने वालों को तेलंगाना के बनने से संबल मिलेगा। विदर्भ, गोरखालैण्ड और उत्तर प्रदेश को काट कर पूर्वांचल बनाने की बात शायद जोर भी पकड़े। झारखंड के लिए जब आंदोलन चल रहा था तब माँग थी ऐसे राज्य की जिसमें ओडीशा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी हिस्से भी हों। आखिर में झारखंड बना केवल बिहार के दो हिस्से कर के। आंदोलन करने वालों की शिकायत थी कि उन्हें बिहार से कुछ नहीं मिलता था जबकि बिहार उनके खनिजों को लूट रहा था।

 

कालांतर में झारखंड बना और शिबु सोरेन और मधु कोड़ा जैसे लोग मुख्यमंत्री बने। श्री कोड़ा चार साल जेल में बिता कर पिछले साल जमानत पर रिहा हुए और अब उनकी पत्नि गीता कोड़ा विधानसभा सदस्य हैं। बिहार में इसका उलटा हुआ है। लालू यादव को जेल हुई है, और ऐसे कई मिलते हैं जो राज्य में कुछ अहम विषयों पर सुधार लाने का श्रेय नितीश कुमार की सरकार को देते हैं। भारखंड का आंदोलन करने वालों से यह सवाल होना चाहिएः क्या नितीश कुमार बेहतर रहते भारखंड के लिए? और अगर अजीत जोगी और रमण सिंह जैसे मुख्यमंत्रियों को छत्तिसगढ़ की कथित तरक्की का जिम्मा जाता है तो उनके कुशल राज से मध्य प्रदेश को क्यों वंचित किया जाए?

 

विनोबा भावे ने कई साल पहले छोटे राज्यों पर एक प्रश्न का जवाब दिया थाः पत्थर को तोड़ने से और छोटे पत्थर ही मिलते हैं, उनका स्वभाव मक्खन जैसा नहीं होता। पत्थर तोड़ती हमारी राजनीति में मक्खन पैदा करने के लिए केवल छोटे राज्य नहीं, कुछ ताजा राजनीतिक और सामाजिक विचार भी चाहिए।

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