[ अनुपम मिश्र का ‘क’ कला संपदा एवं वैचारिकी द्वारा नागपुर में आयोजित सम्मेलन में दिया गया भाषण, दिसंबर दो हजार सात ]
मेरा जो परिचय आपने सुना उसमें कोई तकनीकी शिक्षा का आपको आभास नहीं मिलेगा। फिर भी मुझे तकनीकी महत्व पर कुछ बोलना है। जो कुछ भी मैंने समाज से सीखा, मोटे तौर पर वो आपके सामने रखने की कोशिश करूंगा। अगर बातचीत रुचिकर लगने लगेगी तो आप लोग बाद में प्रश्न भी पूछ सकते हैं। मानवीय समाज में तकनीक का महत्व अलग से कुछ हो ऐसा मुझे नहीं लगता। मानवीय समाज में क्यों दानवी समाज में भी तकनीक का महत्व हो सकता है। किसी भी समाज में, वनस्पति समाज में भी तकनीक का महत्व है। लाखों–करोड़ों साल में चीजें तय की हैं प्रकृति ने। लेकिन मैं इसको एक विषय की तरह नहीं देखता। इसमें समाज का पूरा जीवन, सब तरह के विषय आने चाहिए। जबहमतकनीकको एक अलग विषय मानते हैं जो शायद उन्नीसवीं शताब्दी से माना जाने लगा उसके बाद से ये दो टुकड़ों में टूटा। इसलिए कुछ छोटी–मोटी बातचीत करके आपके सामने हिंदुस्तान में आज जिसको तकनीक माना जाता है उसका बहुत संक्षिप्त इतिहास रखना चाहूंगा।
समाज से भिन्न तकनीक कोई अलग से अंग नहीं है। और उसमें जो पुराना उपनिषद् का श्लोक है कि यह पूर्ण है, यह पूर्ण रहेगा यदि इसमें से पूर्ण निकाल लें इसमें पूर्ण जोड़ दें– कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं ऐसा मानता हूं कि समाज और तकनीक का ऐसा संबंध रहा था ज्यादातर समाजों में। उसको एक कौशल की हद तक अगर परिभाषा ही देनी हो तो एक ऐसा कोई विषय जो हमारे कष्ट को या दुख को थोड़ा कम करे और सुख को थोड़ा बढ़ा सके। लेकिन पूरे कष्ट हट जाएं और पूरा सुख आ जाए ऐसी भी जिम्मेदारी कभी लोगों ने तकनीक को सौंपी नहीं थी। आपको दूर जाना है तो कोई ऐसा वाहन बन जाए कि थोड़ा आपका समय बचे, आपकी मेहनत बचे। फसल पैदा करनी है, आपको जमीन पर रेखाएं खींचनी है उसमें कौन–सा हल बने कितना गहरा उसका फल होना चाहिए, वह वहां के जमीन पर निर्भर करेगा। वहां की वर्षा पर निर्भर करेगा।
लोगों ने इन सब चीजों का विकास अपने अनुभव के आधार पर अलग–अलग समय में किया। उसमें से जो टिकने लायक चीजें थी उनको ज्यों का त्यों टिकाया, जिसमें परिवर्तन करना था उनमें परिवर्तन किया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में कोई एक अंग्रेज यहां की खेती पर रिपोर्ट बनाने के लिए आए थे। उन्होंने बड़े आश्चर्य के साथ लिखा कि पिछले पांच सौ सालों में इनके हल का डिज़ाइन जरा भी बदला नहीं है। आप इसको एक कमजोर वाक्य की तरह ले सकते हैं। कमजोर दोनों अर्थों में कि हमारे किसान इतने नासमझ थे कि उन्होंने अपने हल तक में परिवर्तन नहीं किया। वे इतने पिछड़े थे कि पांच सौ साल से एक सा हल चला रहे हैं। दूसरा इसका एक पक्ष यह हो सकता है कि अगर उस इलाके की मिट्टी नहीं बदली, वर्षा का आंकड़ा नहीं बदला, फसल नहीं बदली तो हल बार–बार क्यों बदलना। हल कोई फैशन नहीं है जो किसी और जगह से संचालित होगा और आपको उसमें परिवर्तन करना है। इन सब चीजों को अगर आप देखेंगे तो इसको समाज ने एक सांस्कृतिक रूप दिया। इसमें जो कला और सम्पदा और इस पर प्रकाशित जो पत्रिका ‘क’ जिसके कारण हम सब इकट्ठे हुए हैं तकनीक को कला से जोड़ा। हर एक चीज से जोड़ा और उसको एक अलग स्वतंत्र विषय की तरह नहीं देखा गया और तभी उसका महत्व समाज में एक–सा बड़ा बना रहा।
मैं आपके सामने एक किस्सा शुरू में रख देना चाहता हूं कि जब हम लोग थोड़े से भटक जाते हैं तो फिर हमें बहुत सारे बाहर के विचार भी कभी–कभी ऐसे लगते हैं कि जब हम डूबेंगे तो ये तिनके का सहारा होगा। जब तकनीक के आज के स्वरूप से कुछ समाज, कुछ लोग, कुछ मित्र, कुछ हिस्से दुनिया में परेशान होने लगे तब आप सब को याद होगा, चूंकि हम लोग एक सर्वोदय से संबंधित संस्था में भी बैठे हैं कि इंग्लैंड के एक विचारक का एक प्रसिद्ध वाक्य बहुत चला पूरी दुनिया में। उनकी किताब का शीर्षक था– ‘स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल’ हम सबने भी उसको अच्छी तरह से अपना लिया। शूमाखर साहब बहुत सहृदय व्यक्ति थे। सिर्फ विद्वान ही नहीं। चीजों को बहुत बारीकी से देखते थे और उन्होंने दुनिया में चलने वाले अर्थशास्त्र की भी ठीक–ठाक आलोचना की। लेकिन मेरा आप से विनम्र निवेदन है कि तकनीक के बारे में ऐसा कोई नारा आप बिना सोचे–समझे नहीं अपना सकते। यह जरूरी नहीं कि तकनीक के स्केल से उसका स्वभाव तय होगा। बड़े का कुछ नुकसान देखा गया होगा लेकिन तकनीक हमेशा छोटी–से–छोटी होगी उसी से सब चीजें सुधर जाएंगी, ये बहुत भोली अवधारणा होगी हमारी। समाज अपनी आस–पास की प्रकृति से सीखता है। प्रकृति ने हमारे यहां नागपुर में बहने वाली नाग नदी भी होगी, कितने किलोमीटर होगी नाग नदीॽ जहां से निकलती है और जहां जाकर दूसरी नदी में मिलती है। नाग नदी की क्या लंबाई हैॽ आप में से कोई बताए। 40 किलोमीटर और नर्मदा 1,312 किलोमीटर है। प्रकृति ने अगर शूमाखर साहब का वाक्य पढ़ा होता तो शायद वो 40 किलोमीटर से बड़ी नदियां बनाते हुए डरती। ब्रम्हपुत्र दो–तीन देशों से गुजरती हुई, रौंदती हुई, हल्ला मचाते हुए आखिर में बंगाल की खाड़ी में गिरती है तब उसका सीना समुद्र जैसा दिखने लगता है। मुझे लगता है बड़े या छोटे का उतना डर मन में नहीं रखें। जो हमारे काम का है और जिसपर समाज का नियंत्रण समता मूलक ढंग से रह सकता हो, उतनी हद तक वह चाहे जिस आकार में रहे, मुझे लगता है कि ये सारी बहस थोड़ी ठीक हो सकती है।
आज हम लोग जिन परिवारों से हैं, हम सबकी इच्छा अपने परिवार में अपने बेटे–बेटी को, अपने छोटे भाई को कुछ–न–कुछ पैसा बचा कर इंजीनियर बनाने की जरूरत होती है। न बन पाए तो थोड़ी हमें तकलीफ भी होती है। कोशिश यह है कि डॉक्टर बन जाए, इंजीनियर बन जाए। तो मैं आपके सामने ये इंजीनियर बनने वाली प्रवृत्ति रखूंगा किये सब कैसे शुरू हुई। हमारे एक वक्ता नागपुर इंस्टीट्यूट से हैं। ये कब खुली होगी नागपुर में, 1942 में। कभी इस इंस्टीट्यूट में पढ़ने और पढ़ाने वालों के मन में ये प्रश्न आया कि नागपुर में एक इंजीनियरिंग कॉलेज खुला तो इससे पहले हिंदुस्तान में सबसे पहले ऐसा कॉलेज कहां खुला होगा। नागपुर के कॉलेज से लगभग सौ साल पहले आपको जाना पड़ेगा पीछे। नागपुर तब भी एक अच्छा शहर था विदर्भ का, या सी.पी.बरार का। लेकिन 1847, तब हमारे यहां अंग्रेजी सरकार नहीं बनी थी। उससे पहले का जो संस्करण या अवतार था ईस्ट इंडिया कंपनी, उसके हाथ में कारोबार था। आप सब लोग जानते हैं, सामाजिक चीजों में इतने गंभीर रूप से जुड़े हुए हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी यहां व्यापार के लिए आई थी। उच्च शिक्षा की झलक आपको देने के लिए उसकी कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं थी। वो यहां के बच्चों को पढ़ा लिखा कर कुछ सभ्य नहीं बनाना चाहती थी। वो सब बाद का एजेंडा है उसकी जब सरकार बनी और जो नाम हम लोग अकसर सुनते हैं मैकाले साहब का।
तब तक मैकाले भी नहीं है। 1847 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली, बम्बई, चेन्नई, नागपुर ये सब शहर देख लिए थे। लेकिन इनमें से किसी भी जगह उसने कॉलेज नहीं खोला। क्योंकि उसको कॉलेज खोलने की कोई गरज नहीं थी। पहला इंजीनियरिंग कॉलेज 1847 में एक बहुत छोटे से गांव में खुला। उस गांव की तब की आबादी किसी भी हालत में पांच हज़ार, सात हज़ार से अधिक नहीं थी। उस गांव का नाम है रुड़की। हरिद्वार–दिल्ली के बीच में।
आप सब के मन में यह प्रश्न आना चाहिए कि रुड़की जैसे छोटे–से गांव में ईस्ट इंडिया कंपनी को काहे को जाकर एक कॉलेज खोलने की जरूरत पड़ी। यह हिंदुस्तान का पहला कॉलेज है इंजीनियरिंग का। इसका नाम रुड़की कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनियरिंग रखा गया। हममें से चूंकि ज्यादातर लोग विजय शंकरजी के निमित्त यहां इकट्ठे हुए हैं तो सब लोग सामाजिक चीजों से कोई–न–कोई संबंध रखते हैं। पिछले कुछ सौ–दो–सौ वर्षों से हमने भाषा के मामले में असावधानी का रुख अपनाया है। कोई नया शब्द हमारे जीवन में आता है तो हम उसको उलट–पुलट कर देखते नहीं हैं। ज्यों की त्यों स्वीकार कर लेते हैं। सिविल इंजीनियरिंग ऐसा ही शब्द है। अगर यह सुनकर हमारे ध्यान में कोई न कोई खटका आता तो, हमें इसका इतिहास ढूंढ़ना फिर कठिन नहीं होता। पर खटका कभी आया नहीं, इसलिए हम इसके इतिहास में पड़े नहीं। और सब विद्याओं के आगे सिविल नहीं लगता। इंजीनियरिंग के आगे सिविल क्यों लगाना पड़ा? क्योंकि हिंदुस्तान में सिविल इंजीनियरिंग नाम की कोई चीज थी ही नहीं। जो कुछ भी ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ आया था वो मिलिट्री इंजीनियरिंग के लिए आया था। कैसे इस देश पर कब्जा करें, कैसे इस देश को गुलाम बनाएं? अगर आजादी के दीवाने कोई पुल तोड़ दें तो हम उस पुल को कैसे रातों–रात दुरुस्त करें इसके लिए उनके विभाग में चार–पांच नौकर–चाकर रखे जाते थे। वो सब इंग्लैंड से ही आते थे। उनको सिविल कहलाने वाले कामों में पड़ने की कोई दिलचस्पी नहीं थी।
इससे पहले हिंदुस्तान में सिविल का कोई काम नहीं होता हो, ऐसी बात नहीं है। काम बहुत होता था लेकिन उसको सिविल इंजीनियरिंग कहा ही नहीं जाता था। अलग–अलग राज्यों में उस काम को करने वाले अलग–अलग लोग थे। जिसको अंग्रेजी में ‘वाटर बॉडी’ कहने से हम लोगों को अच्छा लगता है तो मैं वाटर बॉडी भी कह सकता हूं। तालाब नाम थोड़ा पिछड़ा लगता होगा। यहां नहीं लगेगा, लेकिन ज्यादातर जगहों पर पुल थे, सड़कें थीं, ये सब कौन बनाता था। कभी हमने इसके बारे में सोचा नहीं। जो लोग बनाते थे वे लोग इंजीनियर नहीं कहलाते थे क्योंकि इंजीनियर शब्द ही नहीं था। इतनी बड़ी संस्थान का कौन अध्यक्ष था, कौन मंत्री था, कहां उसका मुख्यालय रहा होगा। कितने लोगों की वह फौज इकट्ठी करता था जो कन्याकुमारी से कश्मीर तक पानी का काम, सिविल इंजीनियरिंग का काम करते थे, उसका नाम जानने की हम आज इच्छा तक रखते। क्योंकि हम उस समाज से धीरे–धीरे कटते चले गए। इतना बड़ा स भरा–पूरा ढांचा था, आकार में इतना बड़ा कि मैं अकसर कहता हूं हिंदी में भी और मराठी में भी दो शब्द हैं आकार और निराकार। इतना बड़ा आकार था उस ढांचे का कि वह निराकार हो गया था। कहीं वह दिखायी नहीं था कि उसकी लाल बत्ती की गाड़ी में उसका अध्यक्ष जा रहा है तो कन्याकुमारी से कश्मीर तक लाखों पानी का, तालाबों का काम करने वाले ढांचे के लोगों को हम जानते नहीं थे। ऐसा निराकार संगठन का रूप था।
इसमें तीन तरह से, तीन स्तर का काम करता था समाज। तकनीक के महत्व को जानते हुए, बिना उसका नया और अलग विभाग बनाए, पृथक विभाग बनाए या उसको अपने समाज का एक हिस्सा मानकर कोई स्पेशल प्राइस टैग न लगाकर उस काम को करते–करते उसने तीन स्तर बनाए थे। जहां जरूरत है लोगों के कष्ट को कम करने, सुख को थोड़ा–सा बढ़ाने में सिविल इंजीनियरिंग की, वहां उसकी प्लानिंग हो सके। प्लानिंग के बाद उसको अमल में लिया जा सके। उसके लिए साधन इकट्ठे किए जा सकें। किसी काम में एक लाख लगेगा किसी में चार लाख लगेगा उसका पैसा कहां से आएगा? सोलहवीं शताब्दी में उन दिनों में कोई विश्व बैंक नहीं था जो उधार देने के लिए उदार बैठा हो। ये सारी चीजें आपके सामने, मन में आनी चाहिए। तीसरा बन जाने के बाद उसकी देख–रेख कौन करेगा, उसकी दुरुस्ती? रखरखाव का काम कौन करेगा? आज जो नागपुर के भी तालाब हैं अगर आप इनकी दुर्दशा का इतिहास देखेंगे तो शायद पचास साल पुराना इतिहास होगा, पिटने का या मिटने का। उससे पहले तीन सौ साल तक उनको कौन–सा ढांचा बनाकर रखता था, ऐसे कौन–से तीज और त्यौहार समाज ने तैयार किए थे, जिनमें उसके इर्द–गिर्द समाज की देख–रेख होती रहती थी काम चलता था पूरा का पूरा।
इस ढांचे के पीछे बहुत कुछ समाज का जो अपने मन, तन और धन ये तीनों चीजें लगती थीं। इसका उसने एक बड़ा व्यवस्थित ढांचा बना लिया था। कब कितने लोगों की, कितने हाथ की जरूरत है, कितने पैसे की है तो वो सारा काम उसमें से बखूबी करते थे। लेकिन आप अंग्रेजी राज के विस्तार का इतिहास देखें तो जैसे–जैसे उनके जहां–जहां पैर पड़े वहां–वहां उन्होंने इस ढांचे को नष्ट हो जाने दिया। और उसी के साथ हम पाते हैं कि अकाल पहले भी आते थे लेकिन उस दौर में हमारे देश में सबसे भयानक अकाल आए हैं, अठारहवीं शताब्दी के दौर में। कहीं–कहीं तो इसमें एक तिहाई लोग मारे गए कुछ राज्यों में। यह सब देखकर कुछ सहृदय अंग्रेज अधिकारियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने एक प्रस्ताव रखा कि पश्चिम उत्तर प्रदेश का जो आज हिस्सा है हरिद्वार से दिल्ली के बीच का, इसमें अकाल से पिछले पांच–छः साल में इतने–इतने लोग मरे हैं, अगर गंगा से एक नहर निकाली जाए तो उसमें आपका इतने पौंड का खर्च होगा और उसमें इतने सारे लाखों लोगों का जीवन बच सकेगा। ईस्ट इंडिया कंपनी को लोगों का जीवन बचने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। एक डिस्पैच है शायद मैंने कहीं लिख कर रखा होगा नहीं तो मैं मौखिक बताउंगा। ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी ने ऐसी सब बातचीत को समेटने की कोशिश में जवाब दिया था कि कहीं कुछ करो मत, कहीं किसी को कुछ करने मत दो और होता है तो रोको। ये तीन वाक्य उन्होंने हाथ से लिख कर भेजे थे। लोग मरते हैं तो मर जाने दो। ईस्ट इंडिया कंपनी की कोई दिलचस्पी नहीं उनको बचाने में। लेकिन अगर उनके मन में बचाने की कोई योजना आई तो उसके पीछे भी उनका स्वार्थ था।
इंग्लैंड में उपनिवेश स्थापित हो जाने के बाद औद्योगिक क्रांतियों का दौर भी चल निकला था। लोग मर जाएं, यहां पर भारत में कष्ट हो। इसमें उनकी दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन अपने उद्योगों को चलाने के लिए कच्चा माल चाहिए था। कच्चे माल के लिए उत्पादन चाहिए उनको। औरअकाल, पानी के पुराने ढांचे के टूटने के कारण उत्पादन पर असर पड़ने लगा था। इसलिए उनका फिर से उत्पादन ठीक कर के ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाना एक लक्ष्य दिखा। ऐसे में जो जेम्स थॉमसन नाम के एक अंग्रेज सज्जन थे जो इस इलाके में काम करते थे, बाद में वो लेफ्टिनेंट गवर्नर बनाए गए। नॉर्थ–वेस्ट प्रॉविंस कहलाता था दिल्ली के आसपास का ये इलाका। उन्होंने एक और अपने डिस्पैच में, पत्र में लिखा है कि लोग मरते हैं इस में आपकी दिलचस्पी नहीं है। लेकिन अगर ये नहर बनेगी तो आपको पानी का कर इतने–इतने पौंड मिल सकेगा। इसलिए इसको बनवाइए। तो फिर इसपर काम शुरू करने की इज़ाज़त दी गई। उस समय हिंदुस्तान में, एक बार फिर मैं याद दिला दूं कि आज की तरह कभी नागपुर की इंस्टीटयूट या रुड़की की इंस्टीटयूट नहीं थी। कोई इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं था। लेकिन गंगा का काम शुरू हुआ और रुड़की के किनारे उसको एक विशेष करतब दिखाना था। वो नहर हरिद्वार से चलकर मेरठ तक आने वाली थी। लेकिन रुड़की गांव के किनारे एक नदी पड़ती है, उसका नाम है सोनाली। उसके ऊपर से नहर को निकालना था, जिसको आज हम इंजीनियरिंग की परिभाषा में एक्वाडक्ट कहते हैं, वह बनानी थी। एक ऐसा पुल बनाना था जो पानी लेकर आगे जाएगा, उसके अलावा उसका कोई रूट बनता नहीं था, मेरठ तक आने के लिए।
एक बार फिर आपको याद दिला दूं कि 1830-35 के आस–पास देश में कहीं भी बिजली नहीं है। किसी भी जगह बिजली आई नहीं है और इसलिए सीमेंट भी नहीं है। क्यों कि सीमेंट अंततः बिजली से चक्की चलाकर पत्थर पीसने से बनती है और कोई नई चीज नहीं है। सारा काम चूने–पत्थर से होता था। आपको नागपुर की पुरानी इमारतों से लेकर यूरोप की सब इमारतें भी उसी से बनी मिलेंगी, उसी तकनीक से, तो एक्वाडक्ट को डिज़ाइन करना था। इसी पत्थर और चूने से। तब अंग्रेजों को लगा, ईस्ट इंडिया कंपनी को लगा किये काम तो संभव नहीं होगा और ये नहर यहीं पर आकर रुक जाएगी। जो लोग हैं बनाने वाले उनमें से किसी के पास कोई डिग्री नहीं है।
लेकिन लोगों ने कहा कि ये काम हम करना जानते हैं इसकी आप चिंता नहीं कीजिए। और बहुत बड़ी नहर उन्होंने उसके ऊपर से निकाली जो सोनाली एक्वाडक्ट कहलायी। नहर बन जाने के बाद छोटा–सा एक और प्रसंग आता है जिसका संबंध कला और संस्कृति से है। और मैं तो मानता हूं कि तकनीक से भी है। लोगों ने उनसे कहा कि जब इस नदी पर नहर प्रवेश करेगी, नदी के ऊपर से निकलने पर वहां दो शेर इसका स्वागत करेंगे। और जब ये नदी नहर को पार कर लेगी तो दो शेर इस तरफ बिठाएंगे और दो शेर उस तरफ उसको विदा देंगे। अंग्रेजों ने पूछा कि ये स्वागत और विदा हमको समझ में नहीं आता। कितनी बड़ी मूर्तियां बनानी है तो उन्होंने कहा सोलह–सत्रह फुट की ऊंची मूर्तियां बनेंगी पत्थर की। कितना खर्च आएगा तो उन्होंने बताया। उन्होंने कहा ये तो फिज़ूलखर्ची है तो लोगों ने कहा, नहीं। पानी के काम की रखवाली हमारे समाज का हिस्सा है और उसको जब तक ऐसी कोई सुंदर चीज से बांधेंगे नहीं, उसकी प्राण–प्रतिष्ठा नहीं करेंगे तो हमारा काम पूरा नहीं हुआ, अधूरा माना जाएगा। कट्ले नाम के कोई एक सज्जन थे अंग्रेज अधिकारी तो इसके सुपरिटेंडेंट इंजीनियर थे। उनको शक हुआ कि ये काम तो करने लायक नहीं है तो भी उन्होंने, क्योंकि काम इतना अच्छा हुआ था इंजीनियर के नाते तो उन्होंने कहा चलो एकाध मूर्ति–वूर्ति भी बनाने दो इनको। जो हमारे कलाकार मित्र बैठे हैं उनको यह सुनकर अच्छा लगेगा कि इंजीनियरिंग के काम में मूर्ति के शिल्प को जोड़ा गया इनके आग्रह से। लेकिन इतना आसान नहीं था, उन्होंने कहा कि एक नमूना बनाकर बताओ कि तुम कैसी मूर्ति बनाओगे? तो एक शेर बनाया उसी साइज़ का, पत्थर का, वो कट्ले साहब को इतना पसंद आया कि उन्होंने कहा कि ये तो आप हमारी कोठी के आगे रख दीजिए और चार और बनाइए। तो जो चार की योजना थी वो पांच शेरों में पूरी हुई। ये लोग बिल्कुल शेर की तरह लड़ते रहे कि ये शेर की मूर्तियां स्थापित किए बिना नहर का उद्घाटन नहीं होने वाला। तो ये बनीं। आप में से बहुत सारे लोगों को कभी यूरोप जाने का मौका मिला हो तो लंदन में एक प्रसिद्ध चौराहा है– ट्रेफ्ल्गर स्क्वायर। उसमें काले शेर की मूर्तियां रखी गयी हैं। ये रुड़की की प्रेरणा से उसके सत्रह साल बाद बनाई गई। एक विज्ञापन आता है मयूर सूटिंग्स का, उसमें ये मूर्तियां दिखाई जाती हैं, छोटी–सी झलक है तीन–चार सेकेंड की। शायद सहवाग नाम के क्रिकेटर उसके सामने एक चक्कर लगाते हैं। वो शेर तो बहुत साफ–सुथरे रखे हैं। हमारे यहां दुर्भाग्य से वो सब चीजें पिट गईं और वो मूर्तियां थोड़ी खंडित भी हुई हैं।
कोठी पर एक शेर बिठाया गया और चार नहर पर बिठाए गए। इस काम को पूरा होते देखकर थॉमसन ने फिर से ईस्ट इंडिया कंपनी के मालिकों को लिखा कि ये बच्चे इतना अच्छा काम करना जानते हैं इंजीयनियरिंग का। आज हमारे यहां आरक्षण की बहस होती है कि किसको इंजीयनियरिंग पढ़ाई जाए किसको नहीं। ये तो बिना पढ़े इंजीनियर थे हमारे समाज में। क्योंकि वे पैतृक गुरु–शिष्य परम्परा से सीखते थे और घर का छोटा–मोटा कुंआ बनाने की बात नहीं सबसे बड़ी अंग्रेजों के लिए नहर बनाकर उन्होंने दिखाई थी। और सबसे कम लागत में और एक्वाडक से क्रॉस कराया था। तो इन लोगों को कुछ थोड़ा–सा गुणा भाग सिखा दिया जाए इसलिए आपको एक कॉलेज खोलना चाहिए। ये उन्होंने प्रस्ताव रखा। कुछ दिनों उसके पीछे लगे रहे वे। थॉमसन साहब की एक विशिष्ट इज्जत भी बन गई थी। उस पूरे ढांचे में। तो ये पहली बार 25 नवंबर 1847 को यह कॉलेज खोला गया रुड़की में, जहां की आबादी मैंने बताया पांच–सात हजार थी ऐसे में क्योंकि वो एक्वाडक सामने है लोगों को सीखने को मिलेगा।
इस नहर के बारे में एक और छोटी–सी चीज़ बताऊं जिससे यह समझ में आएगा कि कैसे समाज में एक ऐसी कठिन मानी गई तकनीक कण–कण में फैल जाती थी। जब गारे–चूने और पत्थर से बने ये एक्वाडक इंस्पेक्शन करने के लिए जब पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी की टीम गई, अफसरों की तो उसमे से कुछ–कुछ पानी टपक रहा था। इन्होंने घबराकर कहा ये अभी तो शुरू भी नहीं हुआ और इसमें पानी गिरने लगा है। तो एक गजधर ने जवाब दिया, वहां उनको उस समय लाला कहते थे। जो इंजीनियर्स अपने समाज के इस काम को कर रहे थे, लाला यानि विशिष्ट व्यक्ति। लाला ने उनको उत्तर दिया कि ये लीक नहीं कर रहा। ये एक्वाडक सांस ले रहा है। इसमें जान है। उसको उन्होंने निर्जीव वस्तु नहीं माना। उन्होंने कहा हमने जो ढांचा बनाया है वह सांस वे रहा है और जिस दिन इसमें से ये एक–एक बूंद पानी गिरना बंद हो जाए उस दिन आप समझना कि ये खतरे की घंटी है और ये नहर गिरने वाली है।
मैं आपको बताता हूं कि मैं तीन साल पहले एक्वाडक का दर्शन करने दुबारा गया था और मैंने नीचे जाकर देखा उसमें से अभी भी पानी भी गिरता है। एक–एक दो–दो बूंद थोड़ी देर में। उसके किनारे पर एक मुस्लिम सज्जन, अच्छी दाढ़ी उनकी, तहमत पहने खीरा बेच रहे थे। मैं उसका चित्र लेना चाहता था थोड़ा संकोच हो रहा था, कोई अधिकारी से अनुमति नहीं लेकिन वहां के समाज की तो अनुमति होनी चाहिए। तो मैंने खीरे वाले से कहा ये बहुत सुंदर काम किया पुराने लोगों ने, क्या मैं इसका चित्र ले लूं। तो उन्होंने कहा– हां–हां लीजिए। ये तो हमारे पुराने लोगों का बहुत सुंदर काम था और आज भी इसको लोग देखते हैं लेकिन इसका महत्व नहीं समझते। फिर उसने वह वाक्य कहा जो आज से डेढ़–सौ साल पहले हमारे इंजीनियर ने कहा था। उसने कहा आप नीचे जाएं तो देखना ये सांस लेती हैं हर वक्त, इसमें से एक–एक बूंद पानी गिरता है। नए लोग सोचेंगे यह तो कहां खीरा बेचने वाला और कहां डेढ़–सौ साल पहले उसको डिज़ाइन करने वाला इंजीनियर, दोनों के मन का तार कितना जुड़ा है अपनी तकनीक के मामले में इससे आपको अंदाज़ लगेगा।
खैर ये कॉलेज खुला। आज तो हमको गली–गली में इंग्लिश मीडियम स्कूल दिखते हैं। उसमें सेंट थॉमस से लेकर सेंट हनुमान पब्लिक स्कूल भी मिल जाएंगे। लेकिन 1847 में तो हिन्दी माध्यम के स्कूल भी नहीं थे। अंग्रेजी का तो कोई सवाल ही नहीं था। तो इस इंस्टीटयूट में जो देश का पहली इंजीयनियरिंग कॉलेज माना गया कौन भर्ती होगा, उसकी योग्यता क्या होगी, एंट्रेंस एग्ज़ाम क्या होगा, उसके लिए कोचिंग क्लासेस लगेंगी या नहीं लगेंगी इसके बारे में भी आपको सोचना चाहिए। पुराने दस्तावेज ये बताते हैं कि एडमीशन की योग्यता भी लिखी थी। इस कॉलेज के स्थापकों ने जो कागज बनाया कि बच्चों को हिन्दी और उर्दू का सामान्य ज्ञान होना चाहिए। थोड़ा गणित आता हो और पानी के काम में रुचि हो बस। प्रिंसिपल बातचीत करके उनको भर्ती करेगा। इस आधार पर पहला बैच तो शायद बीस लोगों का वहां पर हुआ। इस तरह 1847 में भारत का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज एक गांव में खुला, तब तक एशिया में कहीं भी इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं था। एशिया से और आगे चलें तो खुद इंग्लैंड के पास ऐसा इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं था। क्यों? क्योंकि तब तक इंग्लैंड का समाज ऐसे काम को घटिया कागीगर का काम मानता था। उसकी नोबिलिटी के लोग, उसके सम्पन्न परिवारों के लोग, आज जैसे हम अपने बच्चों को चाबुक मार कर इंजीनियर, डॉक्टर बनाना चाहते हैं उस समय उसमें कोई रुचि नहीं थी। उस समय के समाज में वहां का सम्पन्न वर्ग अपने बच्चों को शायद अच्छा संगीत सिखाना चाहता था, शेक्सपियर पढ़ाना चाहता था, राजा बनाना चाहता था, दरबार में लाना चाहता था। उसको इंजीनियर बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी उसकी। इसलिए इंजीनियरिंग इंस्टीटयूट इंग्लैंड में भी नहीं था। बीच में युद्ध के समय में पंजाब में कुछ गड़बड़ी हुई है तो कुछ समय के लिए ये बंद रहा इंजीनियरिंग कॉलेज, रुड़की और जब दुबारा खुला तो इसमें ओवरसीज यानी इंग्लैंड से भी पांच या सात बच्चों को लाने का कोई रिज़र्वेशन रखा गया था कि वहां के भी कुछ बच्चों को औपचारिक इंजीनियरिंग की शिक्षा देनी हो तो यहां आ सकें। हमारे यहां आकर रुड़की में पढ़ सकें।
एक दौर तो ऐसा था कि एशिया में आपको कोई भी इंजीनियर मिलेगा सन् साठ–सत्तर में तो वो कहेगा कि रुड़की से पढ़कर निकला है और बाद में मुख्यत: तो जैसा मैंने कहा कि सिविल शब्द से हम लोगों को चौकन्ना होना चाहिए। मिलिट्री इंजीनियरिंग के लिए ही ये सब कवायद होती थी और उसमें सिविल शब्द डाला गया और इस तरह से नहर और पानी का काम अंग्रेजों ने शुरू किया बड़े पैमाने पर और बाद में थामसन ने भी ये कहा था कि ये आपके एम्पायर के एक्सपेंशन(विस्तार) के अच्छे साधन साबित होंगे। वो साबित भी हुए वे लोग और उसके बाद आप जानते हैं कि एक विभाग बना हम सब परिचित हैं, जिससे, उसने कई बार अक्षमता से भी, कई बार उसके भ्रष्टाचार से भी, कुछ अच्छे काम भी किए होंगे। उसका नाम है सीपीडब्ल्यूडी या पीडब्ल्यूडी ये पब्लिक वर्क्स का काम इंजीनियरिंग की पहली इंस्टीटयूट खुलने के बाद, इनके लोगों ने धीरे–धीरे जगह–जगह शुरू किया। तो हमारे समाज में तकनीक का महत्व इतना था कि उसके लिए एक कॉलेज खोलने की जरूरत ही नहीं समझी कभी किसी ने, लोगों ने उसके कॉलेज घर–घर खोले होंगे, गांव–गांव खोले होंगे और बाद में अंग्रेजों ने उसमें से कुछ सीख कर एक जगह एक कॉलेज खोला। फिर तो कुछ धीरे–धीरे और खुलते गए। पूना में एक मिलिट्री का कॉलेज खुला, उस सबमें अभी नहीं जाएंगे। लेकिन तकनीक के मामले में हमें कभी भी अपने आत्मविश्वास को कम नहीं करना चाहिए। जो कुछ हम जानते थे वो हमारे इलाके के लिए बहुत उपयोगी था और समाज ने उसको एक विषय की तरह अलग डिब्बे में बंद न करके पूरे समाज में उसके तिलिस्म का ढक्कन खोलकर रखा था और उसमें कला संस्कृति और साहित्य उससे कोई चीज अलग नहीं की थी।
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यंत्रणा के हमारे ये आधुनिक यंत्र
For lessons on digital swaraj, Gandhi is an open source
2C Digizens, Indians across the digital divide
उर्वरता की हिंसक भूमि
Yesterday at Lucknow, in the heartland of Hindi politics, I came across this board in Devanagari at many places:
नो वेंढिंग जोन
Sign of times to come ?
In more than one way ?
Sent from my iPhone
Whenever we utter technique it gives us mind image of some complication but the above clarifies technology as the beauty the cooperation the simplicity and joy of life which was celebrated in our society.
After knowing and understanding the same I, we, tend to move in the same direction and want to be the change, we want to see around us, to experience that pure joy of social living.
Jacob Bronowski wrote an essay the technology for mankind. He clarifies that a complicated result is combination of various simple combination. Like we consider astronomy is a complicated science and complex technology is used but to know, how many satellite a planet have is counted by shadow of satellite on the planet.
To know the depth of water or gas on the planet we research and only count the wave and width of waves generated when a meteorite hits the surface.
Thanks
Onkar.