यंत्रणा के हमारे ये आधुनिक यंत्र

[ यह लेख कादम्बिनी पत्रिका में अक्टूबरनवंबर 2017 में छपा था ]

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सोपान जोशी

शब्दों का अपना ही जीवन होता है, अपना ही कैलेंडर भी। कभीकभी यह कहना मुश्किल हो जाता है, कि एक शब्द किस रूप में, किस भाव को बतलाने के लिए, कहां पर और कब जनमा। समय के साथ वही शब्द अनेक दूसरे अर्थ समेट लेता है, कहां से कहां पहुंच जाता है।

यंत्र’ को घिस कर एक शब्द बनता है, ‘जंतर’। इससे तंत्र विद्या में तांत्रिकों के उपयोग के चिह्न बनते थे। कई दूसरी चीजों यंत्र कहलाती हैं, जैसे ताला, बाजा या वाद्ययंत्र, बंदूक, मशीन और बर्तन। इसी से ‘नियंत्रण’ भी मिलता है। वशीकरण करनेकरवाने वाले ‘यंत्रक’ कहलाते हैं, लेकिन ‘यंत्रक’ उस मलहम वाली पट्टी को भी कहते हैं जिससे घाव भरता है। ‘यंत्रण’ से माने बांधना भी लिया जाता है और रक्षा करना भी।

इसी से जुड़ा एक और शब्द हैः ‘यंत्रणा’। इसके चर्चित मतलब के पर्याय हैं दर्द, पीड़ा, वेदना। इसका घिसा हुआ रूप है ‘यातना’। शायद इसका अर्थ बताने की जरूरत नहीं है। अंग्रेजी के ‘टॉर्चर’ के लिए इससे सटीक शब्द नहीं है। ‘उत्पीड़न’ से वह भाव नहीं पैदा करता जो ‘यातना’ से, ‘यंत्रणा’ से निकलता है।

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हर समय के अपने यंत्र होते हैं, अपने साधन होते हैं। यंत्र जितना शक्तिशाली हो, यातना देने की उसकी क्षमता भी उतनी ही ज्यादा होती है। हमारा समय सशक्तिकरण का दौर है। इसमें हर किसी का सशक्तिकरण करना एक तरह का धर्म बन चुका है। सही भी है, कमजोर को ताकत चाहिए, अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए। रोजीरोटी, कपड़ालत्ता, घरद्वार, सुरक्षा। इन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए हर किसी को किसीकिसी तरह की शक्ति चाहिए, साधन चाहिए।

आज गतिशीलता ही सबसे बड़ा साधन है, शक्ति भी। एक जगह से दूसरी जगह तेजी से पहुंचने के साधन, स्थान और समय की सीमा को तोड़ झटपट किसी से बात करने के साधन। अगर वाहन हो तो आप जहां पहुंचना चाहें पहुंच सकते हैं। रोजगार के लिए, मिलनेजुलने के लिए, सिनेमा देखने के लिए ही। परिवहन के अभाव का असर समझना हो, तो गांव में सड़क किनारे खड़े लोगों से पूछिए जो आतेजाते वाहनों को रोकने की गुहार हाथ हिलाहिला कर करते हैं। एक समय जैसी पूछ हमारे समाज में बैलों की थी, वैसी ही अब पेट्रोलडीजल से चलने वाले वाहनों की है।

गतिशीलता केवल शरीर के लिए नहीं होती। हमारा मन तो स्वभाव से ही चंचल है। उसे तेजी से यहांसेवहां ले जाने वाले साधन सहज ही रिझाते हैं। जो कोई मन को और गतिशील बना दे, उसके पास लोग भागे जाते हैं। एक समय यह काम संगीतकार और नट किया करते थे, फिर गांवगांव में खेला दिखाने वाली कंपनियां आईं, फिर सिनेमा। इन सभी का स्वरूप सामाजिक ही था। खेला चाहे नट का हो या नौटंकी का या फिर सिनेमा का, उसे लोग साथ मिल कर देखते थे। टी.वी. ने यह बदला, क्योंकि इसे कोई व्यक्ति अकेला बैठा भी देख सकता है।

यहां से बात बिगड़नी शुरू होती है। हम दूसरे लोगों के साथ बैठ कर जो कुछ जीते हैं, भोगते हैं, उसका स्वरूप सामाजिक होता है। उसकी मियाद सहज होती है। साथ बैठ कर खाना खाने पर लालच और पेटूपन की ज्यादा गुंजाइश नहीं होती। अकेले बैठ के खाएं, तो कितना भी खाते जाएं, उसकी कोई हद नहीं होती। टी.वी. पर मित्रों के साथ कोई फिल्म या खेल देखने बैठेंगे, तो उसके पूरा होते ही ध्यान वापस मित्रों पर जाएगा। अकेले बैठे कुछ देखेंगे तो उसके खत्म होने पर कुछ और खुल जाएगा। मन को गतिशील रहना, चलायमान रहना अच्छा लगता है।

हर समाज में किसीकिसी तरह के नशे को सामाजिक स्वीकृति मिलती है। कहीं भांग तो कहीं तंबाकू तो कहीं शराब। इन नशों का भोग जब घरपरिवार और मित्रों के बीच होता है, तो उसकी सीमा सहज ही तय हो जाती है। ऐसे परिवेश में नशा लोगों को जोड़ने का काम करता है, आनंद उल्लास में मदद देता है। सभी समाजों में नशा करने के अपनेअपने तरीके रहे हैं, सदियों से। लेकिन अकेले बैठ कर नशा करने वालों में नशा व्यसन का रूप ले लेता है, उसकी लत लग जाती है। ऐसे किया गया नशा परिवार को, समाज को जोड़ता नहीं है, तोड़ता है।

इसके पीछे हमारे स्वभाव का एक बुनियादी सच हैः मनुष्य सामाजिक प्राणी है। प्रकृति ने मनुष्य को अकेले रहने के लिए नहीं बनाया। हमें दूसरों का साथ चाहिए, सुखदुख बांटने के लिए, साथ मिल कर भोग करने के लिए भी। मिलजुल कर किए काम पर सहज ही सीमा भी लग जाती है।

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सशक्तिकरण का हमारा समय साधनों को दो हिस्सों में बांटता है। सभी सत्ता, सभी साधन, सारी शक्ति या तो राज्य व्यवस्था के पास जा रही है, या फिर व्यक्तिगत खाते में। सशक्तिकरण का यह संबंध टिका हुआ है आधार कार्ड नामक एक ऐसे जंतर पर, जिसे राज्य देता है और व्यक्ति पाता है। हमारे इस नए जीवन का आधार वह अधिकार बन रहे हैं, जिन्हें राज्य देता है और व्यक्ति पाता है।

इस संबंध के बीच से समाज, परिवार, मुहल्ला और यहां तक कि धर्मईमान भी लगातार हटाए जा रहे हैं। आज हर व्यक्ति अपनी सीमाएं तोड़ कर वह हासिल करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है जो उसके दायरे से बाहर है। असीम अवसर हैं, महत्वाकांक्षाओं की भी सीमा नहीं है। जाहिर है, रोजीरोटी और मनोरंजन के साधन भी असीम हैं। इन साधनों को साधने के यंत्र भी असीम हैं। आप जहां खड़े हैं, वहीं से आप दुनिया के किसी भी हिस्से से संपर्क साध सकते हैं। घर बैठे भोजन मंगवा सकते हैं।

मन को रंगने के लिए, मनोरंजन के लिए, आज फोन है, कंप्यूटर है, टी.वी. है। आपको वह संगीत सुनने की आवश्यकता नहीं है जो आपके मातापिता या मित्र सुन रहे हैं। आप कान में डट्टा लगा कर अपना निजी ध्वनि संसार रच सकते हैं। वही सुन सकते हैं जो आपको सुनना है। आज आपका बैंक आपके यंत्रों के एक इशारे पर धन यहां से वहां कर सकता है, आप जो चाहें खरीद सकता है। आपके परिवार को पता तक न चलेगा। व्यक्तिगत सशक्तिकरण के चरम पर हम पहुंच रहे हैं।

लेकिन इन यंत्रों से हम जो भी करते हैं, उस पर सरकार का नियंत्रण जरूर होता है, आधार कार्ड के जरिए। और उससे भी ज्यादा हम पर नियंत्रण बनता जा रहा है बाजार का। क्योंकि इन यंत्रों के माध्यम से बाजार को हमारे मन में वह जगह मिल जाती है, जो पहले परिवार और समाज के पास थी। बाजार हमें मनोरंजन बेचता है, सोशल मीडिया के जरिए मित्रता और सामाजिकता भी बेचता है। अपने पॉकेट के दम पर अपना काल्पनिक संसार रचने की शक्ति और साधन भी देता है। यह सब पिछले दो दशकों में बहुत तेजी से बढ़ा है।

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आज अनेक तरह के वैज्ञानिक अध्ययन यह बता रहे हैं कि यंत्रों के बीच पैदा हुए और बढ़ते बच्चों पर इसका प्रभाव चिंताजनक है। यह दौर यूरोप और अमेरिका से शुरू हुआ है, सो इसके प्रभाव वहां और साफ दिखने लगे हैं। लगभग 25 साल से युवा लोगों और बच्चों पर अध्ययन कर रहीं एक मनोवैज्ञानिक का सन् 2013 में एक बड़े बदलाव पर ध्यान गया। अकेलापन और अवसाद 13-19 साल के बच्चों में तेजी से बढ़ता हुआ दिखा। यही नहीं, बच्चों में अपने दोस्तों से मिलने और साथ खेलने की इच्छा बहुत तेजी से घटती हुई दिखी। वे कहती हैं कि उन्होंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा।

इस बदलाव का कारण खोजने निकलीं, तो उन्हें दिखा कि बच्चों का यंत्रों पर बीतने वाला समय बढ़ता ही जा रहा था। उन्होंने आगे शोध किया, तो पाया कि दूसरे बच्चों से मिलना, खेलकूद या धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेना, और होमवर्क करना तक खुशी बढ़ा रहा था। जितना समय यंत्रों के पटलों से दूर बीत रहा था, उतने समय बच्चों की खुशी और उत्साह बढ़ रहे थे। जितना समय यंत्रों के साथ बीत रहा था, उतनी ही उदासी बढ़ रही थी। उनका शोध दिखाता है कि यह ढर्रा पिछले 15 साल से लगातार बढ़ रहा है। सन् 2007 में इसमें अचानक तेजी आई। इस साल स्मार्टफोन आने शुरू हुए थे। इस पर आधारित एक किताब उन्होंने लिखी है, जिसका शीर्षक ही यह बताता है कि आज हम जिस तरह अपने बच्चों को ऐसे बढ़ा कर रहे हैं, उससे उन्हें सुखीसंतुष्ट जीवन जीने की कोई तैयारी नहीं मिल रही है।

TVgun

इसमें सोशल मीडिया का बड़ा हाथ है। बच्चे हर तरह की स्थिति में फेसबुक और इंस्टाग्राम पर प्रतिक्रिया कैसे करनी है, यह तो सीख लेते हैं। किंतु सजीव परिस्थितियों को निभाने के लिए जो भाव और सामाजिक रस चाहिए होता है, उसका उनमें अभाव रहता है। आज कई समाजशास्त्री यह आग्रह करते हैं, कि जब तक हो सके, स्मार्टफोन और संचार के आधुनिक यंत्रों को बच्चों से दूर ही रखना चाहिए। और यह बात केवल वैज्ञानिक कह रहे हों, ऐसा नहीं है। जिन लोगों ने इस नई तकनीकी की दुनिया में अपने आविष्कारों से अपार सफलता प्राप्त की है, वे खुद अपने बच्चों को इनसे दूर रखते हैं।

ऐप्पल कंपनी का सफल यंत्र आईपैड जब जारी हुआ था, तब एक पत्रकार ने ऐप्पल के मुखिया स्टीव जॉब्स से पूछा कि उनके बच्चे इसे कितना पसंद करते हैं। तो उन्होंने कहा कि उनके बच्चों ने इसे इस्तेमाल नहीं किया है, क्योंकि वे बच्चों को यंत्रों के प्रभाव से बचा कर रखते हैं। तकनीकी की इस नई दुनिया की अंतर्राष्ट्रीय राजधानी है अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य की सिलीकॉन वैली। यहां दुनिया भर के यंत्रों को बनाने वाली कंपनियां स्थित हैं, और उनमें काम करने वाले अपार अमीर सॉफ्टवेयर इंजीनियर भी। पर यहीं ऐसे महंगे स्कूल हैं, जिनमें बच्चों को 15 साल की उम्र तक यंत्रों से दूर रखा जाता है।

यानी हमारी आधुनिकता जिन आविष्कारकों के बनाए यंत्रों पर चलने लगी है, वे अपने परिवारों को तो इन यंत्रों से बचाते ही हैं, यंत्रों के खुद अपने इस्तेमाल को भी बेहद सीमित रखते हैं। क्योंकि उनसे बेहतर यह बात कोई और नहीं समझता, कि यंत्रों से ही यंत्रणा निकलती है। किंतु वे दूसरों को नशे में रखने वाले यंत्र नियमित रूप से बनाते रहते हैं। कुछ जानकार तो इसकी उपमा उन लोगों से देते हैं, जो लत लगाने वाले नशीले पदार्थों का अवैध व्यापार तो करते हैं, लेकिन खुद उसका उपयोग कभी नहीं करते हैं।

अगर हम जीवन के रस से अपने आप को वंचित नहीं करना चाहते, तो हमें यंत्रों की यंत्रणा पर काबू करना होगा। अपने असीम सशक्तिकरण पर अंकुश लगाना होगा।

TVpuppet

 



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  1. एक शानदार लेख

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