[ इस लेख का संक्षिप्त रूप 18 जून 2019 के दैनिक हिन्दुस्तान में छपा है ]
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सोपान जोशी | स्वतंत्र पत्रकार और लेखक, नई दिल्ली
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आखिर हुआ क्या था? पवेलियन में विराट कोहली और महेंद्र सिंह धोनी बल्ला हिला–हिला के आज़मा रहे थे। सुनने की कोशिश कर रहे थे कि वह रहस्यमय आवाज़ आखिर आयी कहाँ से। इस रविवार 16 जून को पाकिस्तान के खिलाफ विश्व कप 2019 के मुकाबले में 77 रन बनाने के बाद एक बाउंसर को डीप–फाइन–लेग पर उड़ाने के फेर में कोहली आउट हो के पवेलियन लौट आये थे।
किंतु टी.वी. पर रीप्ले में साफ़ दिख रहा था कि गेंद जब कोहली के बल्ले के बगल से निकली, तब वह उससे पर्याप्त दूरी पर थी। टी.वी. पर देखने के बाद कोहली और धोनी को शक हुआ होगा कि बल्ले के हत्थे में कोई कसर है, कि वह ढीला तो नहीं पड़ गया। अगर बल्ले का हत्था ढीला हो, तो उससे शॉट खेलते समय ऐसी आवाज़ निकल सकती है जिससे यह भ्रम पैदा हो कि बल्ले से गेंद टकराई है।

जब कैच की अपील हुई, तब कोहली ने अंपायर के निर्णय की प्रतीक्षा नहीं की। बस, पवेलियन लौटते-लौटते गर्दन घुमा के एक बार अंपायर की ओर देखा। वे अपना सिर हिला के कोहली के निर्णय को सही ठहरा रहे थे। अंपायर को अपनी उंगली उठाने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
खेल–कूद में ऐसे क्षण कम ही आते हैं। अगर गेंद बल्ले का महीन किनारा लगती हुई पीछे लपक ली जाती है, तो आजकल के क्रिकेट में कोई भी बल्लेबाज खुद निर्णय ले के पवेलियन नहीं लौटता है। पहले के समय में कई बल्लेबाजों का यह नियम हुआ करता था कि यदि गेंद हल्के से भी उनके बल्ले या दस्ताने से छू जाती, तो वे अंपायर के निर्णय का इंतज़ार नहीं करते थे। उनकी खुद्दारी की आवाज़ उन्हें साफ़ सुनाई पड़ती थी। वे खुद पवेलियन लौट जाते थे क्योंकि खेल खेलने की भावना यही कहती है। जब ऐसी मान्यताएँ चलती थी तब क्रिकेट भद्र लोगों का खेल कहा जाता था। खेल का बाज़ार तब भी था। पर आज तो बाज़ार का खेल है। बाजारू और अभद्र बाज़ारवाद आज खेल पर हावी हो चुका है।
फिर पवेलियन लौटे भी कौन? विराट कोहली! वही कोहली जो प्रतिद्वंदिता की तैश में बौराये दिखते हैं। वही कोहली जिनके लिए किसी भी प्रतियोगी के साथ गाली–गलौज करना आम बात रही है। वही कोहली जिनकी आक्रामकता भारतीय क्रिकेट में एकदम नयी है। कुछ समय पहले जब एक खेल समर्थक ने कोहली की आलोचना की, तो भारतीय कप्तान ने उसे देश छोड़ के चले जाने के लिए कहा।
इस विश्व कप में कोहली का एक अलग रूप निखर के आ रहा है, एक विराट रूप। दक्षिण अफ्रीका के तेज गेंदबाज कागीसो रबाडा ने उन्हें हाल में “इमेच्योर” (अपरिपक्व) कहा। अपेक्षा तो यही थी कि कोहली ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। किंतु जब पत्रकारों ने दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध होने वाले मुकाबले के पहले उनसे प्रेस वार्त्ता में रबाडा के कथन पर प्रतिक्रिया माँगी, तो कोहली ने रबाडा की गेंदबाजी की शालीन शब्दों में तारीफ़ की। यह भी कहा कि वे एक व्यक्तिगत मामले को तूल देने के लिए मीडिया का उपयोग नहीं करेंगे।
फिर जब ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ भारत का मुकाबला चल रहा था, तब बाउन्ड्री के पास बैठे भारतीय समर्थकों ने कुछ अभद्र व्यवहार किया। वहाँ ऑस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान स्टीव स्मिथ खड़े थे, जो खेल में धोखेबाजी के लिए एक साल का प्रतिबंध काट के हाल ही में लौटे हैं। भारतीय समर्थक उन्हें उलाहना दे रहे थे, उनका अपमान कर रहे थे, उन्हें दुत्कार रहे थे।
कोहली ने उन समर्थकों के पास जा के उन्हें ऐसा करने से मना किया। उनसे कहा कि वे स्मिथ के लिए ताली बजाएँ। फिर वापस आ के उन्होंने दर्शकों के व्यवहार के लिए स्मिथ से क्षमा भी माँगी। मैच के बाद उनसे पत्रकारों ने पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। कोहली ने जवाब दिया कि स्मिथ अपनी टीम के लिए जी–जान से खेल रहे हैं। कि उन्होंने जो गलती की उसकी पूरी सज़ा वे भुगत चुके हैं। इसके बाद उन्होंने कहा कि वे कल्पना कर सकते हैं कि उनसे भी कुछ ऐसी भूल हो सकती है, जिसकी सज़ा चुकाने के बाद भी उनके साथ अगर दुर्व्यवहार हो, तो उन्हें ख़राब लगेगा।
ऐसी विराट परिवक्वता कोहली में पहले नहीं दिखी है। अटकलें लगाने वाले शायद कहें कि यह महेंद्र सिंह धोनी की शांत प्रवृत्ति का कोहली पर असर है, कि धोनी की संगत में कोहली में शीतलता आ गयी है। या शायद कुछ दूसरे लोग कहें कि इस नयी कोमलता का श्रेय कोहली की पत्नी अनुष्का शर्मा को जाना चाहिए, कि शादी रचाने के बाद व्यक्ति में एक तरह की संपूर्णता आ जाती है। अगर ये बातें सही होतीं, तो ऐसा असर दूसरे खिलाड़ियों पर भी दिखता। कोहली पहले तो नहीं हैं जो किसी धोनी–से शांत चित्त कप्तान के बाद आए हों। न ही वे पहले हैं जिन्होंने कप्तानी मिलने के बाद शादी रचायी हो। नहीं, ऐसा बदलाव बहुत कम खिलाड़ियों में दिखलाई पड़ता है।
संभवतः यह खेल–कूद और प्रतियोगिता में गहरे डूबने का असर है। जिस खिलाड़ी को कमर कस के जूझना आता है, अपने भीतर के हर अंश को खेल की बाज़ीगरी में झोंकना आता है, उसी को हार–जीत क्या होती यह सही में महसूस हो सकता है। इसी बड़प्पन के सहारे हम अपना–अपना छुटभइय्यापन छोड़ के अपने आप से बड़े बन पाते हैं। कलिंग से युद्ध जीतने के बाद शायद सम्राट अशोक को यही आभास हुआ होगा। किसी बाज़ी में अपना सब-कुछ दाँव पर लगाने वाला सामने वाले की आँख-में-आँख डाल के देखता है।
आज हमारे समाज में इसके उदाहरण कम होते जा रहे हैं। खासकर सोशल मीडिया पर जिस अभद्रता और अहंकार से बातचीत होती है, उससे लगता है कि हमारे देश में कोई सामाजिक संस्कार, कोई अध्यात्म कभी रहा ही नहीं है। मनोविज्ञान में इसका एक अंग्रेज़ी नाम है, ‘ऑनलाइन डिसइनहिबिशन इफेक्ट’। यानी जब दूर बैठे हुए लोगों से हम बिजली के यंत्रों के सहारे ही बात करते हैं, तब हमारे भीतर से सहज संवेदना चली जाती है। किसी को दुख पहुँचाने से जो खुद को दुख पहुँच सकता है, उसकी गुंजाइश ही नहीं बचती है।

अगर हम किसी के शरीर पर हमला करें, तो हमें खून दिखाई देता है, उसकी वेदना दिखती है। उससे यह आभास होता है कि वैसा ही खून हमारी रगों में भी दौड़ रहा है। अगर हम किसी का अपमान करे, तो उसके चेहरे की मायूसी हमें भी दिखती है। अगर उसके बावजूद हम सामने वाले को शारीरिक या मानसिक चोट पहुँचाएँ, तो हमें अपने भीतर की संवेदना को मारना पड़ता है। यह असंभव नहीं है पर इतना आसान भी नहीं होता। खुद अपने आप का एक हिस्सा मारे बगैर हम किसी दूसरे पर वार नहीं कर सकते हैं। हमें दूसरे व्यक्ति में अपने आप का सामना तो करना ही पड़ता है।
लेकिन ‘सोशल मीडिया’ की दुनिया में ऐसा नहीं है। आप छिप–छिपा के किसी को गाली दे सकते हैं, उसे भला–बुरा कह सकते हैं। उसका जो भी असर होता है, उसका सामना नहीं करना पड़ता। किसी और को हमने कितना दुख पहुँचाया, इसका आभास नहीं होता।
ऐसा करने से किसी कायर व्यक्ति में भी एक झूठी वीरता आ जाती है। किसी को चोट पहुँचाने में खुद को कोई दर्द नहीं होता। इससे अच्छे–बुरे का अंतर चला जाता है, आलोचना और अपमान का भेद भी भुलाया जा सकता है। यह झूठी वीरता हमारे समाज के एक हिस्से को आज अंधा बना रही है। किसी दूसरे व्यक्ति को अपमानित करने के लिए, उसे उलाहना देने के लिए, उसे दुत्कारने के लिए उसका सामना नहीं करना पड़ता। बस, फोन पर उंगली घुमा के दूर से अपने आप को सही और अपने से अलग मत रखने वाले गलत ठहराना आसान हो जाता है।
कोहली ने रविवार 16 जून को अंपायर की उंगली उठने का इंतज़ार नहीं किया। मुकाबला पाकिस्तान से था। विश्व कप में था। सामने गेंजबाज़ मोहम्मद आमिर थे, जो खुद मैच–फिक्सिंग करने की सज़ा में प्रतिबंध भोग चुके हैं। यही नहीं, आमिर ने कोहली को कई बार आउट किया है। कोहली के पास आमिर से हिसाब चुकता करने के कई कारण हैं।
कोहली ने हिसाब नहीं किया। चाहे बल्ले के ढीले हत्थे से ही आयी हो, किंतु उनके कान में एक रहस्यमय आवाज़ पड़ी। कोहली ने उस आवाज़ को सुन लिया। यह रहस्यमय आवाज़ हम सबके भीतर से आती है, लेकिन हम सब उसे सुन नहीं पाते हैं। ऐसा क्यों?
शायद इसलिए क्योंकि किसी प्रतियोगिता में हमने अपना सर्वस्व झोंका नहीं होता। न सच्ची जीत भोगी होती है, न सच्ची हार महसूस की होती है। बस मीडिया पर, सोशल मीडिया पर उसके बारे में पढ़ा होता है, उस पर अपनी प्रतिक्रिया दी होती है। शायद गालियाँ भी, अपमानजनक शब्द भी, परिहास भी। लेकिन हमारे भीतर तक उस खेल का, उस हार–जीत का अहसास नहीं जाता। वैसी अनुभूतियाँ तो जीवन जीने से आती हैं, मीडिया को चाट-चाट के पढ़ने से नहीं। ऐसी अनुभूतियाँ ही हमें भीतर से बदलती भी हैं, हमें अपने आप से बड़ा बनाती हैं, परिपक्व करती हैं।
कोहली में कुछ वैसा ही बदलाव दिखा। पवेलियन लौटने के उस एक क्षण में कोहली किसी एक क्रिकेट टीम के नहीं, हर खेल–प्रेमी के मन के कप्तान बन गये थे। चाहे एक क्षण के लिए ही सही।

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बहुत खूब सोपान भाई, मन की आवाज सुनने की आदत होनी चाहिए, बात करना बाहर की ओर जाने जैसा है तो सुनना अपने भीतर आने जैसा 👌👍🏼👍🏼😊 – सुधीन्द्र मोहन शर्मा, इंदौर 🙏😊
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