[ यह लेख ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका के 26 जून 2019 के अंक के 36वें पन्ने पर छपा है ]
– सोपान जोशी
बस, एक महीने की बात है। हम बाढ़ से होने वाले नुकसान की बात कर रहे होंगे। तब तक मॉनसून की बारिश देश के बड़े हिस्से तक पहुँच चुकी होगी। जैसे अभी सूखे से होने वाले जान–माल के नुकसान का हिसाब लग रहा है, वैसे ही बाढ़ से होने वाली तबाही का लेखा–जोखा बन रहा होगा।
कई सौ साल आगे देख के जल प्रबंधन करने वाला हमारी पुराना समाज आज एक ऋतु, एक मौसम के आगे देखने में भी असमर्थ है। आज हम एक त्रासदी से दूसरी त्रासदी तक जीने वाला समाज बन चुके हैं। विचार और मानस के ऐसे दारिद्र से अपने आप को निकालने के लिए जो दृढ़ता और धीरज चाहिए, उसका हमारे यहाँ अकाल है।
जिस सूखे से हमारे देश का बहुत बड़ा हिस्सा जूझ रहा है वह इतना अचानक भी नहीं आया। इसके संकेत तो जाड़े में ही मिलने लगे थे। कई इलाकों में वसंत समय से पहले आया और बेमौसम बारिश भी हुई। होली के समय ही कई जगहों पर तापमान सामान्य से अधिक था।
अंतर्राष्ट्रीय संकेत भी थे। मॉनसून के बादल दक्षिणी गोलार्ध से आते हैं। इन पर गहरा असर पड़ता है प्रशांत महासागर की जलवायु का। हमारे यहाँ अकाल की तीव्रता का ऐतिहासिक संबंध रहा है ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अमेरिका के बीच के विशाल समुद्र की परिस्थिति का। इस साल मार्च के महीने में प्रशांत महासागर का औसत तापमान लगभग एक डिग्री सेल्सियस बढ़ा हुआ था।

दक्षिणी गोलार्ध
सागर का स्वभाव हमारे थर्मामीटर से तय नहीं होता, वहाँ एक डिग्री का अंतर बहुत बड़ा होता है। अप्रैल के महीने में इसकी चेतावनी आ चुकी थी। किंतु पृथ्वी के जलवायु तबीयत ऐसी बिगड़ रही है कि मौसम का पूर्वानुमान लगाना दिनोंदिन और अधिक कठिन हो जा रहा है। फिर भी, इतना तो साफ था कि इस बार गर्मी–सूखे का असर अधिक होगा, समस्या विकराल रूप धर लेगी।
दो महीने पहले ही साफ था कि प्रशासन को तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। जैसा प्रबंध ओडीशा राज्य ने चक्रवात ‘फनी’ को सहने के लिए किया, कुछ वैसी ही तैयारी की जरूरत थी सूखे से निपटने के लिए। केंद्र सरकार में भी और राज्य सरकारों में भी।
इसी बीच पहले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए और फिर आम चुनाव आ गए। कई अध्ययन और अनुमान बताते हैं कि इस बार के आम चुनाव अत्यधिक महँगे थे, हजारों करोड़ रुपये का खर्च हुआ। चुनाव विशेषज्ञ और पत्रकार देश भर में घूम–घूम के जनसाधारण की राजनीतिक नब्ज़ टटोल रहे थे। दलीय राजनीति के पीछे अकाल की छाया दिख रही थी। लेकिन उसकी बात नहीं हुई।
सूखे से त्रस्त इलाकों से यह पता चल रहा है कि प्रशासन ने तैयारी नहीं की। पशुओं के लिए चारे का इंतज़ाम न होने से उसका भाव अनाज के भाव के बराबर पहुँचने लगा था। राजस्थान और गुजरात जैसे पारंपरिक पशुपालक इलाकों में अकाल से पशुओं के मर जाने से लोगों की कमर ही टूट जाती है। राजस्थान के कुछ इलाकों में 22 साल बाद टिड्डी दल का आतंक छाया था, मई के महीने में, जबकि पहले यह दीवाली के आसपास ही होता था। तेलंगाना, कर्नाटका और महाराष्ट्र में अकाल की तैयारी की जरूरत अप्रैल में ही दिख रही थी। जलाशयों में जल स्तर औसत से नीचे था।
प्रशासन को कमर कस के सूखे के प्रबंध में लगना था। लेकिन वह चुनाव के इंतजाम में ही लगा था। जब लोग मदद माँग रहे थे, तब उन्हें आचार संहिता का हवाला दिया जा रहा था। राजनीतिक दल ही नहीं, मीडिया और सामाजिक कार्यकर्त्ता भी चुनाव के आगे देखने को तैयार नहीं थे। आज भी कुछ इलाकों में पीने का पानी टैंकर से सूखाग्रस्त इलाके में पहुँचाने में समस्या यह है कि पंप चलाने के लिए बिजली नहीं है।
सभी लक्षण एक ऐसे दरिद्र समाज के हैं जो एक त्रासदी से दूसरी त्रासदी में जूझता रहता हो। जिस नयी आर्थिक तरक्की और विकास को सभी राजनीतिक दलों ने आदर्श मान लिया है, वह इस दारिद्रय को दूर नहीं कर सकती।
जलवायु परिवर्तन से प्राकृतिक आपदा और बढ़ेगी ही। मौसम का पूर्वानुमान लगाना लगातार कठिन होता जाएगा। हमें एक और बड़ा चुनाव करना है। इसमें केवल मतदान से काम नहीं चलेगा। अपने देश और समाज को, उसके पर्यावरण को समझने के लिए श्रमदान करना होगा।

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