[ लेख ‘गांधी मार्ग’ के जुलाई-अगस्त २०१२ अंक में छपा है ]
सौंदर्य केवल लघु होने से नहीं आता। ‘स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल’ का पाठ पढ़ाने वाले
हमारे पर्यावरण वाले भूल जाते है कि प्रकृति लघु ही नहीं, अति सूक्ष्म रचना भी करती है और
विशालकाय जीव भी बनाती है। छोटे–बड़े का यह संबंध भूला देना मनुष्य जाति
की आफत बन गई है। दुनिया के जाने–माने जीवविज्ञानी विक्टर स्मेटाचैक
इस संबंध के रहस्य को और हमारी परंपराओं को ज्ञान और साधना
से जोड़ते हैं। वे विज्ञान और अहिंसा, भोजन और भजन की एक नई परिभाषा, हमारे
नए जमाने के लिए गढ़ते हुए एक आश्चर्यजनक माँग कर रहे हैं:
कुछ लाख रसोइये ले आओ जरा!
सोपान जोशी
कोई 15,000 साल पहले धरती पर बहुत बड़े स्तनपायी पशुओं की भरमार थी। इनके अवशेषों से पता चलता है कि इनमें से ज़्यादातर शाकाहारी थे और आकार में आज के विशाल पशुओं से भी बड़े ही थे। उत्तरी अमेरिका और युरोप–एशिया के उत्तर में सूंड़ वाले चार प्रकार के भीमकाय जानवर थे, इतने बड़े कि उनके आगे शायद आज के हाथी भी छोटे पड़ जाएं। वैज्ञानिकों ने इनको मैमथ और मास्टोडोन जैसे नाम दिए हैं। फिर घने बाल वाले गैंडे थे। ऐसे विशाल ऊंट थे जो अमेरिका में विचरते थे और साईबीरिया के रास्ते अभी एशिया तक नहीं पहुँचे थे। आज के हिरण, भैंस और घोड़ों जैसे ही या उनसे और बड़े हिरण, भैंस और घोड़े पूरे उत्तरी गोलार्द्ध में घूमते पाए जाते थे, चीन और साईबीरिया से लेकर युरोप और अमेरिका तक। कुछ हिरण तो आकार में आज के हिरण से लगभग दुगने थे।
कुछ बड़े मांसाहारी प्राणी भी थे। आज के सिंह से एक–तिहाई बड़े सिंह थे। आज के बाघ ही जैसा स्माईलोडॉन था जिसके पैने कृपाण जैसे दो दांत थे। अमेरिका, खासकर उत्तर अमेरिकी महाद्वीप में दानवाकार भालू थे, उस पोलर भालू से भी बड़े जिसे आज की दुनिया का सबसे बड़ा मांसाहारी पशु माना जाता है। कई और विशाल भालू अमेरिका के दोनों महाद्वीपों पर मस्ती से झूमते विचरते थे।
थोड़ा नीचे उतरें। आस्ट्रेलिया की जलवायु एकदम भिन्न रही है। वहाँ के वनस्पति और पशु भी निराले रहे हैं, जिनमें सबसे खास हैं अपने शिशु को एक थैली में रखकर पालने वाले धानी स्तनपायी, जैसे कंगारू । जिस काल की हम बात कर रहे हैं उसमें कई बृहत्काय धानी समृद्धि में जीते थे। धानी गैंडा और सिंह, कई तरह के भीमकाय कंगारू, कई तरह के विशाल सरिसृप, आज के इमू के ही आकार के कई तरह के पक्षी, विशाल डैने फैलाए घूमते हुए।
पृथ्वी पर जीवन खिला हुआ था। हरियाली इतनी थी कि शाकाहारी प्राणियों के पास भोजन की कोई कमी नहीं थी। कच्चा शाकाहारी भोजन पचाने के लिए बहुत बड़े और कई ऊदर चाहिए, इसलिए शाकाहारी पशु बड़े होते चले गए। उनको खाने वाले मांसाहारी भी आकार में बड़े और प्रकार में विविध होते गए। आज भी सबसे बड़े पशु शाकाहारी ही होते हैं।
लाखों, करोड़ों साल के क्रम विकास से पनपे ये असंख्य प्रकार के विशाल प्राणी अचानक कोई तीन हजार साल में विलुप्त हो गए। ऐसे ही। आस्ट्रेलिया में ये घटना थोड़ा पहले ही घट गई थी। शाकाहारी हों या मांसाहारी, इन जानवरों का विकास वहां के पेड़–पौधों के साथ हुआ था और दोनों मे आपसदारी का संबंध था। फिर इन पशुओं के मिटने के बाद वनस्पति बेतहाशा बढ़ने लगी और जंगलों में भयानक आग लगने लगी। ऐसा माना जाता है कि इस दावानल ने ही आस्ट्रेलियाई महाद्वीप को रेगिस्तान बना दिया था। फिर इन बड़े स्तनपायी पशुओं की विविध जातियां केवल अफ्रीका और दक्षिण एशिया (भारतीय उपमहाद्वीप) में सिमट गईं। और थोड़ी–बहुत दक्षिण–पूर्वी एशिया में।
ऐसा कैसे हुआ? इतने प्राणियों का इतने दूर–दूर के इलाकों में सफ़ाया कैसे हुआ? विज्ञान इसका ठीक–ठीक पता नहीं लगा सका है अब तक। लेकिन दो ही आशंकाएं दिखती हैं। पहला अनुमान तो है कि इस दौरान जलवायु में बहुत तेजी से बदलाव हुआ, इतना तेजी से कि ये विशाल जानवर इसके अनुसार अपने आपको ढाल नहीं पाए। इस परिवर्तन से वातावरण गर्म होने लगा। हिमनद और हिमखंड पिघलने लगे। इसलिए ठंडे वातावरण के आदि स्तनपायी बहुत जल्दी से मिट गए। उनकी मोटी चमड़ी और घने बालों ने गर्मी में उनका जीना दूभर कर दिया और लू खा–खा कर उन्होंने दम तोड़ दिया। इससे ये भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऊष्णकटिबंध में रहने वाले बड़े जानवर क्यों नहीं मिटे: उन्हें गर्मी में रहने की आदत थी।
अगर ऐसा ही हुआ था तो हमारे कार्बन गैसों के उत्सर्जन से जलवायु में जो परिवर्तन और गर्मी आज तेजी से बढ़ रही है, उससे हमारा क्या होगा इसका भी कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है।
लेकिन केवल जलवायु परिवर्तन से ही इतना कुछ हुआ होगा इसके सबूत पर्याप्त नहीं हैं। घरती पर पहले भी इस तरह के परिवर्तन आ चुके थे और इन विशाल प्राणियों के पूर्वज उसके बावजूद बच गए थे। इसमें और भी कई जटिलताएं हैं। इसलिए केवल जलवायु परिवर्तन ही प्राणी जगत पर आए प्रलय का कारण नहीं माना जा सकता। अलग–अलग महाद्वीप पर बड़े स्तनपायियों का मिटना समय में थोड़ अलग है। जैसे आस्ट्रेलिया में ये पहले हुआ, अमेरिका में थोड़ा बाद में।
ये सब होने के पहले कुछ और भी हुआ। अफ्रीका से निकला एक प्राणी इस समय दुनिया भर में फैल रहा था। चूंकि बहुत–सा पानी हिमनदों और हिमखंडों में जमा हुआ था इसलिए समुद्र में पानी का स्तर कम था और महाद्वीपों के बीच कई संकरे जमीनी रास्ते थे जो आज डूब गए हैं। जैसे भारत से आस्ट्रेलिया तक के द्वीप एक दूसरे से जुड़े थे, भारत से लंका तक एक सेतु था। पूर्वी साईबीरिया की जमीन उत्तरी अमरीका के पश्चिमी किनारे के अलास्का से जुड़ी हुई थी बेरिंग सेतु से। इसलिए यहाँ के प्राणी वहाँ तक जा सकते थे। जैसे ये नया प्राणी गया।
इसका विकास अफ्रीका में कोई दो लाख साल पहले हुआ था। अगले पचास हजार साल में ये पूरे अफ्रीका में फैल गया था। अंदाजन कोई 70,000 साल पहले यह प्राणी अफ्रीका से एशिया और युरोप में फैला। वहाँ जल्द ही बड़े स्तनपायी मिटने लगे। फिर जमीनी रास्तों से अन्य महाद्वीपों की तरफ बढ़ा। दक्षिण–पूर्वी एशिया से होते हुए ये कोई 50,000 साल पहले आस्ट्रेलिया पहुँचा और उसके ठीक बाद ही वहाँ के बड़े–बड़े पशु गायब होने लगे। फिर आज से कोई 15,000 साल पहले वह साईबीरिया से उत्तर अमेरिका पहुँचा और जल्दी ही अमेरिका के बड़े स्तनपायी पशु एक के बाद एक मिटने लगे। जहाँ कहीं भी ये नया प्राणी पहुँचा वहाँ के बड़े से बड़े पशु देखते–देखते गायब होने लगे। इसी से वैज्ञानिकों को बड़े स्तनपायी पशुओं के गायब होने के एक और कारण का अंदाजा लगता है। उन्हें कई प्रमाण मिल रहे हैं कि इस नए प्राणी ने दूसरे सभी बड़े पशुओं का शिकार किया, और इतना किया कि उनमें से कई विलुप्त हो गए।
यह नया प्राणी आकार में कोई बहुत बड़ा नहीं था, उसके शरीर में शक्ति भी बहुत साधारण ही थी, उसके पास न तो पैने दाँत थे न नूकीले नाखून ही। पर यह प्राणी झुंड में रहता था और मिल–जुल कर शिकार करता था। सबसे असाधारण था उसका दौड़ने का सरल और न थकाने वाला तरीका। दो पैर पर चलने वाले इस प्राणी का क्रम विकास बहुत दूर तक लगातार दौड़ने वाले जीव की तरह हुआ था और इसके दोनों हाथ औजार बनाने के लिए आजाद थे। उंगलियों के दूसरी तरफ पहुँचने वाले इसके जैसे अंगूठे प्रकृति में इसके पहले कभी देखे नहीं गए थे। और इनसे ये कई तरह के औजार बना सकता था जो और बड़े जानवरों के दाँत और नाखूनों से ज्यादा धारदार और कठोर होते थे। यह सर्वाहारी था इसलिए शिकार न मिलने पर शाकाहार से भी मजे में गुजर बसर कर लेता था।
अगर औजारों से बड़े जानवरों का शिकार न कर पाए तो यह उनको दौड़ा–दौड़ा कर, थका कर मार सकता था। बहुत तेज नहीं दौड़ सकता था पर इतनी दूर तक लगातार दौड़ने वाला प्राणी धरती पर और कोई नहीं था। इसका माथा बहुत चौड़ा था, जिससे इसमें अभूतपूर्व बुद्धिमता थी। इसकी बदौलत ये बहुत जटिल किस्म के संदेश आपस में बाँट सकता था और तरह–तरह की जानकारी याद करके अपने शिशु को समझा सकता था। इतनी जटिल भाषा किसी और प्राणी के लिए सीखना असंभव रहा है। जो याद करता उससे वह अपनी गुफाओं की दीवारों पर चित्र खींचता। जल्दी ही उसने आग को संजोना सीख लिया। अब वह अपना भोजन पका कर सुपाच्य और कहीं ज्यादा पौष्टिक बना लेता था।
जब शिकार के लिए जानवर कम होने लगे तो उसने खेती करके अनाज और कई तरह के खाद्य पदार्थ उगाना शुरु कर दिया। कई तरह के पशुओं को अब पालतू बना कर उनकी शक्ति का उपयोग वह परिवहन और खेती में करने लगा। उसकी आबादी बढ़ने लगी, उसकी बस्तियां फैलने लगीं। बस्तियों और छोटे गांवों के बाद कोई दस हजार साल पहले वो बड़े शहर बनाने लगा। नाव बना कर समुद्र में दूर–दूर तक तक जाने लगा, वहाँ भी जहाँ उसके शरीर से पहुँचने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। फिर उसने हवा में उड़ने वाले जहाज बनाए। समुद्र में गहरी जाने वाली पनडुब्बी बनाई और अंतरिक्ष में जाने वाले यान भी। वह आज धरती पर सबसे कामयाब स्तनपायी बन गया है। उसकी संतति हैं हम सब।
अब तक ये तो सिद्ध हो चुका है कि कई बड़े–बड़े द्वीपों से विशाल जानवर मनुष्य ने ही शिकार कर के मिटाए हैं। लेकिन वैज्ञानिकों को ये मानने में कठिनाई हो रही है कि आकार और शक्ति में मामूली होने के बावजूद भला इस मनुष्य ने पूरे के पूरे महाद्वीपों से विशालकाय पशुओं को कैसे खा मारा। अभी इसके प्रमाण पूरे नहीं मिले हैं। लेकिन कई वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य की मिल–जुल कर काम करने की काबिलियत उसे किसी बहुत शत्तिशाली पशु से ज्यादा बलवान बना देती है।
श्री विक्टर स्मैटाचेक ये बखूबी समझते हैं। उनका जन्म सन् 1946 में उत्तराखंड के भीमताल में हुआ था। उनके जर्मन पिता दूसरे विश्व युद्ध के मारे भटकते हुए कलकत्ते आ पहुँचे थे। नागरिकता और मन से भारतीय होकर वे भीमताल में बस गए थे। घर के चारों तरफ जंगल था, वन्य वनस्पति थे, प्राणी थे। उनके संबंधों की लीला जिसमें प्रतिस्पर्धा भी है और आपसदारी भी, विक्टर की सहज दुनिया थी। उन्हें इस दुनिया से खूब राग था, उनके स्कूल के मित्रों से भी ज्यादा।
ये संबंध सीधा था, इसमें किसी तरह का आदर्शवाद या कोई विचारधारा नहीं थी। उनके पिता अपने परिवार के भोजन के लिए कभी–कभी शिकार भी करने जाते थे। बालक विक्टर के आग्रह पर पिता ने उन्हें अपनी बंदूक इस्तेमाल करने को भी दे दी थी। पर एक वायदे के साथ: बिना जरूरत कभी शौकिया शिकार नहीं करना और बंदूक कभी भी किसी मनुष्य की ओर नहीं तानना, फिर चाहे बंदूक में गोली हो या नहीं। पिता को दिया वचन श्री विक्टर ने कभी नहीं भुलाया। वे जल्दी ही बंदूक के इस्तेमाल में पारंगत हो गए। इतने कुशल कि अगर आस–पड़ोस के गाँवों में कभी कोई वन्य प्राणी हिंसक हो जाता तो उन्हें मदद के लिए बुलाया जाता था।
एक बार बगल के गाँव के लोग उनसे मदद माँगने आए। वे परेशान थे एक पगलाए हाथी से जो खेती का नुकसान तो करता ही था, पर फिर उसने कुछ लोगों को जान से भी मार डाला था। कुछ समय पीछा कर–करा के उन्होंने एक हाथी को मार गिराया, पर बाद में पता चला कि यह वो आततायी हाथी नहीं था। इसी दौरान श्री विक्टर ने पहली बार हाथियों का व्यवहार करीब से समझा। आखिर किसी भी कुशल शिकारी को पशुओं का व्यवहार ध्यान से समझना होता है। उन्हें दिखा कि धरती पर चलने वाला सबसे बड़ा प्राणी जितना खाता नहीं, उससे कहीं ज्यादा वनस्पति जड़–मूल उखाड़ देता है। उन्हें समझ नहीं आया कि हाथी इतना उत्पात क्यों मचाते हैं, इतना विध्वंस क्यों करते हैं। और हमारी यह प्रकृति हाथी का यह उत्पात सहन ही क्यों करती है।
इसे समझने में उन्हें थोड़ा समय लगा। एक छात्रवृत्ति उन्हें जर्मनी ले गई। वहाँ वे जीवविज्ञान पढ़ने लगे। उससे पता चला कि हाथी को प्रकृति ने इतना बड़ा क्यों होने दिया, और क्यों वो इतनी तोड़–फोड़ करता है। हाथी का भोजन बहुत विविध रहता है और उसे कई तरह के पेड़–पौधों और घास प्रिय हैं। लेकिन जंगल का स्वभाव ऐसा होता है कि अगर एक तरह का पेड़ एक इलाके में जम जाए तो फिर दूसरे पेड़–पौधे पनप नहीं पाते। इससे जंगल एकरस हो जाता है और बहुत घना भी। घने जंगल में हाथी का घूमना कठिन होता है। इसलिए हाथी जंगल को कतई एकरस नहीं होने देता, किसी एक वनस्पति का वर्चस्व नहीं जमने देता। ठीक किसी माली की तरह।
श्री विक्टर धीरे–धीरे समझ गए थे कि हाथी का स्वभाव और आकार कैसे बना है। क्योंकि पेड़ बड़े होते हैं और उनके जंगल विशाल इसलिए उनका माली भी बहुत बड़ा ही चाहिए। प्रकृति को हाथी का विध्वंस प्रिय है क्योंकि जहाँ हाथी रहते हैं वहाँ तरह–तरह के वनस्पति उपज सकते हैं, कई तरह की घास और झाड़–फानूस, कई छोटी–बड़ी जड़ी और बूटियां। इनके सहारे कई तरह के जीव और प्राणी भी जीते हैं। घास के इलाके में हिरण, घोड़े, ज़ेब्रा, गाय, भैंस जैसे कई बड़े जानवर और इनका शिकार करने वाले कई मांसाहारी जानवर भी पनपते हैं, जैसे बाघ, सिंह, तेंदुआ, भेड़िया इत्यादि। श्री विक्टर को समझ में आने लगा था कि हाथी के आकार और इस विध्वंस में प्रकृति की लीला ही है जो सूक्ष्म तो पैदा करती ही है, विशालाकार को भी सुंदर और गूढ़ रहस्य से भर देती है।
हमें कतई भूलना नहीं चाहिए कि हमारे पुरखे भी हाथी के राज में, उसकी माली जैसी सूंड़ के नीचे अफ्रीका के जंगलों में पनपे थे और फिर दुनिया भर में फैल गए थे। हाथी जंगल का माली ही नहीं, प्रशासक और राजा भी रहा है। आज भी है।
इस सबक से श्री विक्टर के जीवन की दिशा तय हुई, लेकिन कई साल बाद और जमीन से कई हजार मील दूर अंटार्कटिका के समुद्र में। क्योंकि जब अध्ययन में किसी विशेषता को चुनने की बारी आई तो उन्होंने समुद्री प्लैंकटन पर शोध करना तय किया। ये सन् 1970 के आस–पास की बात है। दुनिया भर जानती थी भारत में अनाज की तंगी की बारे में। तब कहा जाता था कि कि भविष्य का भोजन समुद्र से ही आएगा।
समुद्र का जीवन सबसे सूक्ष्म जीवों से चलता है, शैवाल और प्लवकों से। इन्हें अंग्रेजी में एलजी और प्लैंकटन कहते हैं। ये वनस्पति भी होते हैं और जीव रूप में भी पाए जाते हैं। चाहे वो आज तक का सबसे बड़ा प्राणी नीली व्हेल हो – सौ फुट लंबी, डेढ़ सौ टन वजनी – या हो व्हेल शार्क, दुनिया की सबसे बड़ी मछली जो 40 फुट की लंबाई और बीस टन का वजन रखती है। सब कुछ प्लवकों से ही चलता है। श्री विक्टर इन प्लवकों के विशेषज्ञ बन गए और दुनिया भर के समुद्रों में शोध के लिए तैरने लगे। फिर तो दुनिया भर की ऐसी जानकारी भी उनके भीतर तैरने लगी।
इसी दौरान उन्हें पता चला एक अमेरिकी वैज्ञानिक के शोध का। इस वैज्ञानिक ने बतलाया था कि समुद्र में जीवन के लिए सब अनिवार्य तत्व मौजूद रहते हैं, बस केवल लौह के सिवाय। लौह के सूक्ष्म अनुपात के बिना किसी भी जीव कोशिका में जीवन का संचार हो ही नहीं सकता। और लौह समुद्र के पानी में घुल जाता है, बच नहीं पाता किसी भी प्रकार के जीवन को पोसने के लिए। तो फिर समुद्र में प्राणी ये जरूरी लोहा कैसे पाते हैं?
जमीन से।
जमीन में खूब लौह तत्व रहता है। ये दो रास्तों से समुद्र में पहुँचता है और ऐसे रूप में कि जल्दी से घुले नहीं। एक तो नदियों के सहारे और दूसरा आँधियों की हवा में उड़ती धूल के कंणों में। लेकिन इससे जीवन केवल समुद्रतट या सतह तक ही सीमित रह जाता है। जीवन अपना रास्ता खोज ही लेता है, और अगर उसे जरूरत हो लौह के परिवहन की तो फिर वह ऐसे जीवों को बढ़ावा देता है जो लौह को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचा सकें। ये ही वजह है कि समुद्र में वनस्पति कि तुलना में जीव ज्यादा होते हैं, जबकि जमीन के ऊपर जीवों की तुलना में वनस्पति कहीं ज्यादा पनपते हैं। समुद्री जीव इस लौह के व्यापार को अपने शरीर से करते हैं, उनके गोबर में लौह की ढुलाई होती है। वह भी ऐसे रूप में कि वनस्पति और दूसरे प्राणियों को जीवन मिल सके। इस बेहद जटिल लेन–देन में जीवों का भोजन, उत्तरजीवन और पुनर्जीवन बहुत बारीक और गहरे रसायन में गुंथा हुआ है।
इस रसायन के रहस्य समझते हुए एक दिन श्री विक्टर को अपने लड़कपन का वह दिन याद आया जब उन्होंने हाथी का विध्वंस करीब से देखा था। और एक पल में नीली व्हेल की अथाह भव्यता उनके सामने एक सुलझी हुई व्याख्या बन कर प्रकट हुई: जैसे हाथी जमीन पर प्रकृति का माली है वैसे ही व्हेल समुद्र की कुरमी है। हाथी अपने बल से बड़े पेड़ तोड़ कर सूरज की रोशनी जमीन तक आने देता है, जिससे जीवन के असंख्य रूप स्फुट होते हैं। ठीक वैसे ही व्हेल का विशाल शरीर लौह का चलता–फिरता कारखाना ही नहीं, ढुलाई की मालगाड़ी भी है। यानि भिलाई और रेल मंत्रालय एक ही जगह!
इसमें शरीर की विशालता के अलावा व्हेल का परोपकार भी है। व्हेल अपने शरीर के भीतर समुद्र के खारे पानी से नमक अलग करती है। ऐसा करने में उसकी बहुत ऊर्जा खर्च होती है। फिर सहज ही वह इस पानी को अपने गोबर के साथ छोड़ कर फिर लग जाती है खारे पानी को साफ करने में। इस गोबर में खूब इस्तेमाल लायक लौह होता है जो प्लवकों को पोसता है। जितना ज्यादा गोबर उतने ही ज्यादा शैवाल और प्लवक, और उतने ही ज्यादा वो प्राणी भी जो प्लवकों पर जीते हैं। इनमें उंगली बराबर क्रिल भी होती है, जो नीली व्हेल के आहार का आधार है।
नीली व्हेल के परोपकार का फल प्रकृति उसे ढेर सारे भोजन के रूप में वापस देती है। इसीलिए लाखों पीढ़ियों के क्रम विकास से वह दुनिया की सबसे बड़ी जीव बन गई है। केवल आकार ही नहीं, परोपकार में भी यह व्हेल सबसे बड़ी है। उसकी छाया में, उसके राज में, उसके गोबर से जीवन पनपता है। खासकर अंटार्कटिका के आस–पास के दक्षिणी महासागर में, जहाँ दुनिया की सबसे बड़ी व्हेल पायी गई हैं। पुराने नाविकों के संस्मरण बताते हैं कि समुद्र में जहाँ भी नजर दौड़ाते, अनेक व्हेल सतह पर आकर सांस लेते हुए, फुहार छोड़ते हुए दिखती थीं।
लेकिन प्रकृति के दिए जिन गुणों से मनुष्य इतना सफल हुआ है उनका उपयोग उसने अंधाधुंध करना शुरु कर दिया है। जैसे बड़े–बड़े स्तनपायी जानवर हमारे पुरखों ने शिकार कर मिटा दिए वैसे ही आजकल समुद्र को निचोड़ा जा रहा है। व्हेल के शिकार के सबसे पुराने प्रमाण 5,000 साल पहले के तटीय इलाकों से मिलते हैं, लेकिन वह शिकार व्हेल की आबादी देखते हुए नगण्य ही था। ढाई सौ साल पहले हुई औद्योगिक क्रांति से ऐसे जहाज बनने लगे जो एक बार में कई व्हेल मार कर ला सकते थे। सन् 1900 के आसपास ऐसे जहाज बन गए जो तैरते हुए कारखाने जैसे थे। व्हेलों को मार कर उसका मांस तैयार करते थे और उनसे निकलने वाले वसा से तेल बनाते थे। सन् 1930 के दशक तक यह कारोबार इतना बढ़ गया था कि हर साल कोई 50,000 व्हेल मारी जा रही थीं।
हर प्रकार की व्हेल की आबादी तेजी से घटने लगी थी। फिर सन् 1946 में अंतर्राष्ट्रीय व्हेलिंग आयोग बनाया गया और चालीस साल बाद इसने व्हेल के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन आज भी व्हेल का शिकार चोरी–छुपे होता ही है। तीन देश इस प्रतिबंध का खुलकर विरोध भी करते हैं और उल्लंघन भी। ये हैं जापान, नॉर्वे और आइसलैंड। जापान व्हेल के मांस का सबसे बड़ा बाजार है। व्हेल के शिकार पर बहुत तीखा विवाद होता है जो संयुक्त राष्ट्र की अनंत थकी हुई बहसों में खो जाता है। यदा–कदा अखबार की सुर्खियों में भी आ जाता है।
यह हाल केवल व्हेल का ही नहीं है। समुद्र से हर तरह के जीवों का नृशंस दोहन हो रहा है। सन् 1950 में केवल युरोप, पूर्वी अमेरिका और चीन–जापान के तट पर मछली और दूसरे समुद्री जीव कम हो रहे थे। आज तो मछुआरे जहाज ज्यादा हैं और शिकार के लिए समुद्री प्राणी कम। प्रशांत और हिंद महासागरों से समुद्री जीवों की पकड़ बहुत तेजी से घटी है क्योंकि उनकी आबादी को पुर्नजीवन का मौका ही नहीं मिलता। मछली, केंकड़े, झींगा और हर तरह के समुद्री जीव घटते ही जा रहे हैं।
शैवाल और प्लवकों के भी बुरे दिन आ गए हैं। क्रिल की आबादी घट चुकी है। श्री विक्टर मानते हैं कि इसका कारण है व्हेल और लौह की समुद्र में अनुपस्थिति। लेकिन इसे दूर करना इतना मुश्किल भी नहीं है। उनका प्रस्ताव है कि अगर हम समुद्र में लौह फैला दें तो शैवाल फिर जी उठेंगे और उन पर जीने वाली क्रिल भी। इससे व्हेलों को भोजन मिलना शुरू हो जाएगा और उनकी संतति फिर से कुछ बढ़ सकती है।
पर इतना लौह आएगा कहाँ से? खनन से निकले कचरे में खूब लौह होता है और यह सब यहाँ–वहाँ पटक दिया जाता है क्योंकि इसे फेंकने के लिए जगह नहीं होती। वहाँ पड़ा–पड़ा ये जमीन बिगाड़ता है। यही कचरा समुद्र में जीवन का स्रोत बन सकता है, ठीक वैसे ही जैसे गाय के गोबर से खाद बनती है। लेकिन समुद्री जीवन के लिए इतनी जहमत कोई नहीं उठाएगा ये श्री विक्टर जानते थे। उन्हें एक युक्ति सूझी। उनका समाधान था मनुष्य के सामने आयी आज तक की सबसे बड़ी समस्या: जलवायु परिवर्तन।
अगर लौह से समुद्र में जीवन बढ़ाया जाए तो वह वातावरण से कार्बन सोख लेगा। शैवालों का जीवन पूरा होने पर उनकी खोल डूब कर समुद्रतल में दब जाती है, खासकर तब जब ढेर सारे शैवाल हों। उनकी खोल में कार्बन होता है। इसे वे वातावरण से सोखते हैं। उनके फलने–फूलने से वातावरण का कार्बन तो घटेगा ही, समुद्र में कई प्रकार का नया जीवन भी फिर जी उठेगा, ऐसा श्री विक्टर मानते हैं।
इसे सिद्ध करने के लिए लंबे समय तक बड़े–बड़े प्रयोग करने की जरूरत है और उसके लिए बहुत धन भी चाहिए। आजकल हर बड़ी कंपनी जलवायु परिवर्तन के समाधान की बात करती है, लेकिन उसकी आड़ में ध्येय मुनाफाखोरी ही होता है। इसलिए श्री विक्टर इस व्यवसायिक दुनिया की गोद में नहीं बैठना चाहते। उनके प्रयोग की संभावनांए देखते हुए भारत और जर्मनी की सरकारों ने एक योजना बनाई है और उसे नाम दिया है ‘लोहाफेक्स’। जर्मन टीम का नेतृत्व कर रहे हैं श्री विक्टर। भारतीय टीम का नेतृत्व कर रहे हैं गोवा के राष्ट्रीय समुद्रविज्ञान संस्थान के श्री वजीह नक़वी। दो समुद्री यात्राओं के बाद आगे की तैयारी में दोनों तरफ के लोग जुटे हुए हैं। शुरु में उनके प्रयोग का पर्यावरणवादियों ने घोर विरोध किया। कहा कि ये समुद्र के साथ छेड़खानी है और षडयंत्र भी है। फिर विरोध धीरे–धीरे खतम हो गया।
श्री विक्टर जानते हैं कि सिर्फ समुद्र में लौह डालने से ही काम नहीं चलेगा। अपने प्रयोग को वे कुछ ऐसे समझाते हैं: “हम सब एक नाव में सवार हैं। मनुष्य की करतूतों से, बेतहाशा विकास से इस नाव में छेद हो गया है। लोहाफेक्स कुछ ऐसे है जैसे नाव को डूबने से बचाने के लिए उससे पानी निकालना। इससे छेद नहीं बंद होगा। छेद बंद करने के लिए हमें अपना स्वभाव और प्रकृति से संबंध नए सिरे से समझना होगा। हमें अपनी सीमाएं जाननी होंगी।”
श्री विक्टर का कहना है कि इसके लिए दुनियाभर के लोगों को भारत के गुण समझने होंगे। वे कहते हैं कि बड़े स्तनपायीयों के विलुप्त होने की चर्चा में विज्ञान की दुनिया ये भूल जाती है कि अफ्रीका के अलावा केवल भारतीय उपमहाद्वीप पर ही बड़े स्तनपायी बच पाए थे। अफ्रीका तो मनुष्य का घर माना जाता है और वहाँ दूसरे जीवों के साथ मनुष्य के संबंध सहज और जन्मजात है। लेकिन भारत आने के बाद मनुष्य ने वह सब क्यों नहीं किया जो उसने दूसरे सब महाद्वीपों पर किया? वह भी तब जब जानवरों के पास भागने की कोई जगह भी नहीं थी: दक्षिण में समुद्र है, उत्तर और पूर्व में हिमालय जैसे पहाड़ हैं और पश्चिम में बड़े रेगिस्तान।
इसका बिल्कुल ठीक जवाब ढूँढ़ने के लिए प्रमाण अभी किसी के पास नहीं हैं। लेकिन श्री विक्टर अपनी बरसों की साधना के बाद एक निष्कर्श पर पहुँचे हैं। वे कहते हैं कि हाथी, सिंह, बाघ और गैंडे जैसे बड़े पशुओं का भारत में बचे रहने का संबंध है शाकाहार से। दुनिया में और कोई जगह ऐसी नहीं है जहाँ मनुष्य की आबादी का इतना बड़ा हिस्सा शाकाहारी हो जितना भारतीय महाद्वीप पर है। उसके बाद हिमालय और समुद्र के बीच बसने की वजह से लोग अपनी सीमाएं जानते रहे हैं, उन्हें ये भास रहा है कि अगर प्रकृति से खिलवाड़ किया तो वे सब भी मिट जाएंगे।
श्री विक्टर की बात को इससे और भी बल मिलता है कि भारतीय उपमहाद्वीप पर जीवन जिस चौमासा की बारिश से चलता है उसका समय सीमित है। हजारों सालों से लोगों ने उस जल को रोक कर उससे अपना जीवन सींचा है। जंगल में अभयारण्य भी रहे हैं। कई परंपराओं में ऐसा माना जाता है कि जंगल के बिना जीवन नहीं है और वन्य प्राणियों के बिना जंगल नहीं। इसी वजह से चाहे यहाँ मांसाहारी लोग भी रहे हों, लेकिन यह समझ रही है कि जीवन के विविध प्रकारों के बिना हमारा भी जीवन चल नहीं पाएगा। हमारे देश का एक बड़ा हिस्सा आज भी हर नए काम के पहले हाथी के सिर वाले विघ्न–विनायक गणेश को पूजता है।
जिस दौर में दुनिया भर से बड़े प्राणी विलुप्त हुए उस दौर के बारे में हमारी जानकारी अभी अधूरी है। लेकिन ये तो प्रत्यक्ष है कि हमारे यहाँ आज भी बड़े–बड़े वन्य पशु पाए जाते हैं। और हमारे यहाँ ही दुनिया के सबसे ज्यादा शाकाहारी लोग हैं। दुनिया के जिन हिस्सों में बड़े पशु विलुप्त हो गए वहाँ के लोग मांसाहारी हैं। और ये तो सबको पता है कि मांसाहारी भोजन घर–घर पहुँचाने में जितना कार्बन वातावरण में उत्सर्जित होता है उतना ही जंगलों का विनाश भी होता है।
शाकाहार केवल अहिंसक जीवन का मार्ग भर नहीं है। श्री विक्टर उसमें मनुष्य के उत्तरजीवन के जवाब देखते हैं। इसी वजह से कई बरस पहले वे पूरी तरह शाकाहारी हो गए। अपने मित्रों को वे शाकाहारी भोजन पका कर खिलाते रहे। उनसे प्रभावित हो उनके मित्र शाकाहारी बनने की कोशिश करने लगे। तब श्री विक्टर को एक और विचित्र समस्या दिखी: दुनिया के ज्यादातर समाजों में शाकाहारी भोजन पकाने का कौशल आज बचा ही नहीं है। मांस पर आधारित भोजन ही पकाना आता है उन्हें। युरोप और अमेरिका में भारतीय भोजन और शाकाहार फैशन की तरह फैलता जरूर दिखता है, लेकिन वहाँ शाकाहार पकाने वालों की घोर कमी है।
इसमें भारत के युवाओं के लिए श्री विक्टर को उम्मीद दिखती है। वे कहते हैं कि हमें हजारों की संख्या में ऐसे रसोइये तैयार करने चाहिए जो स्वादिष्ट शाकाहार पका कर खिला भी सकें और पकाना सिखा भी सकें। उन्हें इस बात का दुख भी है कि हम भारतीय अपनी सबसे सुंदर, संस्कारी परंपराओं में विश्वास खो चुके हैं और युरोप की उस सफलता से घबराए बैठे हैं जो समय–सिद्ध तो है ही नहीं और जिसने जलवायु परिवर्तन के मुहाने पर ला कर हम सबको खड़ा कर दिया है। आज उन परंपराओं में मनुष्य जाति के बचने के रहस्य छुपे हैं।
उन रहस्यों को समझाने के लिए कुछ लाख रसोइये चाहिए।
– श्री विक्टर स्मेटाचेक दुनिया के जाने–माने समुद्र जीवविज्ञानी हैं। उनका पढ़ना–पढ़ाना जर्मनी के
अलफ्रेड वैगनर इंस्टीट्यूट फॉर पोलर ऐंड मरीन साइंस में हुआ है। आजकल वे गोवा के
राष्ट्रीय समुद्रविज्ञान संस्थान में मानक प्राध्यापक भी हैं। वे इस विषय पर लिखते भी हैं और
अंग्रेजी में सचित्र भाषण भी देतें हैं। 17मार्च 2012 को उन्होंने नई दिल्ली में पहली बार
हिंदी में यह भाषण दिया। लेख उनके भाषण और दूसरी जानकारी से बना है।
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बहुत ही उम्दा लिखा है आपने..विज्ञान को इतने सरल और आम बोलचाल की भाषा में लिखना वाकई कमाल है..