[ यह लेख ‘सर्वोदय प्रेस सर्विस’ में 23 अगस्त 2020 को प्रकाशित किया था। ]
सोपान जोशी
अलबर्ट आइंस्टाइन ने जिसका उल्लेख किया था वह फसल आज सामने आ गयी है। सन् 1944 में महात्मा गांधी के जन्मदिन पर पिछली सदी के सबसे यशस्वी वैज्ञानिक ने एक सन्देश लिखा था। उन्होंने कहा था कि आने वाली पीढ़ियाँ शायद मुश्किल से ही विश्वास कर सकेंगी कि हाड़–मांस से बना हुआ ऐसा कोई व्यक्ति भी धरती पर चलता–फिरता था। आज नये लोगों के लिए गांधीजी को समझना तक मुश्किल हो गया है, उनमें विश्वास तो छोड़ ही दीजिए।
इसका पहला कारण है इंटरनेट के द्वारा होने वाला दुष्प्रचार। हिंदुत्ववादी संस्थाओं का गांधीजी से मतभेद होना एक बात है। अपने विरोध को दुर्भावना और दुराग्रह में पलट के, उससे झूठ-पर-झूठ पैदा करके, उनका दिन-रात जाप करना एकदम अलग बात है। गांधीजी की हत्या एक हिंदुत्ववादी ने ही की थी। उस मानसिकता को देखने-जानने वाली पीढ़ियाँ जब तक जीवित थीं, तब तक वृहत्त हिंदू समाज ने हिंदुत्व की राजनीतिक विचारधारा को स्वीकार नहीं किया था। वह सामाजिक स्मृति ‘गांधी वध’ के 72 साल बीतने के बाद आज मिट चुकी है। हमारे समाज में हमारे ही बच्चे आज इंटरनेट पर गांधीजी के बारे में झूठी और ओछी बातें देखते-सुनते बड़े हो रहे हैं।
दूसरा कारण है गांधी विचार की संस्थाओं की दुर्गति। समय के साथ गांधीजी के सहयोगी तो इस दुनिया से चले ही गये, वह पीढ़ी भी गुजरने को है जिसे गांधीजी के सहयोगियों ने तैयार किया था। जो संस्थाएँ खुद गांधीजी ने बनायीं या उनके करीबी सहयोगियों ने बनायीं, वे विषाक्त निष्प्राणता में हैं। पहले एक-दूसरे की पूरक रहीं इन संस्थाओं में आपसी कलह तो बढ़ी है ही, उनके भीतर भी विवाद रोज बढ़ते ही जा रहे हैं। इसका कारण है संस्थाओं पर, उनके पदों पर, उनकी संपत्ति पर नियंत्रण के लिए मन-मुटाव और राजनीति। सेवा के लिए बने सामाजिक संस्थानों पर आज व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के फटे हुए झंडे फड़फड़ा रहे हैं।
यह दूसरा खतरा कहीं ज्यादा गंभीर है। आखिर जिस मानसिकता ने लगातार महात्मा गांधी को अस्वीकार किया, वह अगर उनके नाम पर दुष्प्रचार करे, उनके हत्यारे का कीर्तिगान करे, तो उसमें क्या आश्चर्य! किंतु आज सब देख रहे हैं कि जो लोग गांधीजी का नाम लेते हैं, उनके नाम की दुहाई दूसरों को देते हैं, उनका अपना आचरण गांधीजी के मूल्यों के ठीक विपरीत है। लगातार खंडन, निंदा और भर्त्सना का माहौल तो गांधीजी अपने विरोधी के लिए भी नहीं बनने देते थे। आज गांधीजी का नाम लेने वाले एक-दूसरे पर यह कीचड़ ही उछाल रहे हैं।
इस सबमें गांधीजी के मूल्यों पर काम करने का एक अनमोल अवसर बेकार हो गया है। सन् 2019 में महात्मा गांधी के 150 साल पूरे हुए थे। सरकारी और गैर-सरकारी आयोजनों का भाव खानापूर्ति का रहा। ‘महात्मा गांधी की प्रासंगिकता’ विषय पर अनेकानेक उबाऊ कार्यक्रम हुए। ये कब शुरु हुए, कब खतम हुए, पता ही नहीं चला। जबकि गांधीजी ने जिन गंभीर समस्याओं की आशंका जतायी थी वे विकराल रूप लेती ही जा रही हैं। इन मुश्किलों से निपटने की तैयारी का एक व्यवस्थित खाका 50 साल पहले तैयार किया गया था।
सन् 1969 में पड़ी गांधी शताब्दी की तैयारी उससे सात साल पहले शुरु हुई थी। आयोजन शताब्दी के एक साल पहले सन् 1968 में चालू हुए थे और एक साल बाद सन् 1970 में पूरे हुए थे। देश के कोने-कोने में युवाओं का गांधी जीवन और विचार से परिचय कराया गया था। अनेक देशों में इस अवसर पर कई कार्यक्रम हुए थे, संयुक्त राष्ट्र में भी। ऐसी जन्म शताब्दी किसी की नहीं मनायी गयी थी! इसमें भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से ले कर सरकार का हर हिस्सा शामिल था, किंतु सहायक भूमिका में। गांधी शताब्दी के सभी काम गांधी संस्थाओं के सहयोग और मिले-जुले निदेशन में हुए थे। सभी यह जानते थे कि महात्मा गांधी समाज के व्यक्ति थे, सरकार या राजनीति के नहीं।
‘गांधीः150’ ऐसा ही एक और नायाब मौका था। गांधी जीवन, विचार और प्रयोगों की जरूरत पहले से आज ज्यादा बढ़ गयी है। विविध समस्याएँ हमें घेरे हुए हैं। एक अदृश्य वायरस ने सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था ठप्प कर दी है। कई साल से वैज्ञानिक यह बता रहे हैं कि विकास का दानव जैसे-जैसे उन जगहों पर पहुँचेगा, जहाँ मनुष्य आज तक नहीं गया है, वैसे-वैसे नये रोग उसे लगेंगे। लेकिन औद्योगिक विकास का दैत्य लगातार जंगलों को काट के खाता जा रहा है, चाहे उसके जो भी नुकसान हों।
विकास हमारे समय का सबसे बड़ा अंधविश्वास बन चुका है। इस पर सभी दलों में सम्मति है। जिस औद्योगिक प्रगति में सत्ता संस्थान सभी समस्याओं का समाधान देखते थे, आज वही तरक्कीपसंद दृष्टि हमारी सबसे बड़ी आफत बन चुकी है। मनुष्य प्रजाति के कुल इतिहास में जलवायु परिवर्तन जैसा संकट नहीं आया है। यह हमारी दुनिया तहस-नहस करने की ताकत रखता है और इसके लक्षण चारों तरफ हर रोज फैलते जा रहे हैं। इस विकास ने समाज की विषमताओं को दूर नहीं किया है, बल्कि बढ़ाया है। ऐसी सभी बातों के बारे में गांधीजी ने हमें बहुत पहले चेताया था।
सन् 1909 में गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ लिख के इस चिंता की स्पष्ट रेखा खींची थी। बाद में भी वे लगातार औद्योगिक विनाश के प्रति सभी को आगाह करते रहे। यह अजूबा ही है कि इतना पहले उन्हें यह बात समझ में आ गयी ! नयी पीढ़ी के लोगों को इन समस्याओं का सामना और अधिक करना होगा। उन्हें गांधीजी जैसी प्रयोगधर्मिता अपने भीतर पोसनी होगी, कठिन प्रश्नों के सामने अपने आप को सत्य की कसौटी पर घिसना होगा।
किंतु उनके लिए गांधीजी को समझना बहुत कठिन हो चुका है। एक तो गांधी जीवन अत्यंत मौलिक है। उन्होंने अपने जीवन को ही एक प्रयोग बना दिया था। उनमें पुराने देसी सामाजिक मूल्य खूब सारे थे, लेकिन अफराता हुआ, इतराता हुआ राष्ट्रीय गौरव नहीं था। गांधीजी को एक बार कोई अन्याय समझ में आ जाता था, तो वे उसे दूर करने में उसी समय जुट जाते थे, देर नहीं करते थे।
उनके कोई राजनीतिक सिद्धांत या विचारधारा नहीं थी। उनके मूल्य थे, उनका विश्वास था, उनका विचार था, राजनीतिक काम भी था। किन्तु कोई एक राजनीतिक आदर्श नहीं था। उनके लिए राजनीति भी समाज में काम करने का एक माध्यम भर थी। वे खुद कहते थे कि उनका लिखा किसी परिवेश के भीतर से उपजता है, जिसका भावार्थ देशकाल के हिसाब से बदलता है। इसलिए अगर उनके लिखे में कोई विरोधाभास दिखे, तो जो बाद में लिखा है, उसे ही माना जाए। और अगर उनके लिखे और किये में कोई विरोधाभास दिखे, तो उनके लिखे की बजाय उनका किया हुआ ही मान्य हो।
ऐसी सावधानी अनूठी है। वे यह हमेशा ध्यान रखते थे कि सृष्टि जटिल है, उसमें कई अन्तर्विरोध हैं। यह भी कि सृष्टि ने हमको बनाया है, हमने सृष्टि को नहीं बनाया। इसीलिए गांधीजी के लिए सत्य की साधना ही एकमात्र सहारा था। गांधीजी का सत्य जटिलता को नकारने वाला राजनीतिक सिद्धांत या पोंगापन नहीं था, न ही किसी किताब की तोतारटंत। बल्कि उसमें तरह-तरह के नये-पुराने प्रमाण और सामग्री को धारण करने की गहराई थी। उसमें पुरानी बढ़िया बातों को पकड़ के रखने की प्रतिबद्धता भी थी और नयी बातों को आत्मसात करने का लोच भी। इस असम्भव-सी बात को साधने में उन्होंने अपना जीवन लगाया।
गांधीजी का जीवन जितना मौलिक था, उतना ही व्यापक था। स्वास्थ्य, खेती, कारीगरी, भोजन, राजनीति…कोई विषय नहीं मिलेगा जिसे उन्होंने किसी-न-किसी कारण से समझने की चेष्टा न की हो। अनगिनत लोगों के साथ उनका पत्राचार था और न जाने कितने लोगों से वे रोजाना मिलते थे। वे जहाँ जाते थे वहाँ के पोस्ट ऑफिस का काम बढ़ जाता था और ऐसा भी उदाहरण है कि केवल उनकी वजह से अंग्रेज सरकार को पोस्ट ऑफिस खोलना पड़ा।
नये लोगों के लिए यह सब समझना असंभव हो चुका है। गांधीजी पर लगातार व्यवस्थित दुष्प्रचार तो हो ही रहा है। जो गांधीवाद के नामलेवा हैं उनकी कथनी और करनी में भयानक विरोधाभास हैं। ‘गांधीः150’ उस महात्मा की प्रासंगिकता के मूल्यांकन करने का प्रसंग नहीं है। यह गांधीवादियों के अपने मूल्यांकन का अवसर है। वे कितने प्रासंगिक हैं? क्या है उनकी प्रासंगिकता? (सप्रेस)
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महात्मा गांधी और हमारी अप्रसांगिकता
सोपान जी,
आज के सामाजिक – राजनीतिक परिदृश्य में लेबल चस्पां करने की परंपरा चल निकली है। और, अगर आप किसी लेबल से नहीं जुड़े हों तो आपका वजूद ही नहीं होगा। ऐसे ही, एक तथाकथित ” हिंदुत्ववादी ” जो देश की विचार की धारा को लेबल रहित देख समझ सकने की दिशा में सदा ही प्रयत्न शील रहते हैं, बापू के १५० वे जन्मदिन ( २ अक्तूबर, २०१९) पर मन के किसी कोने में ईमानदारी से क्या कहते सोचते हैं, एक उदाहण देने की कोशिश देखेंगे तो शायद इस शोध क्रिया को बल मिले :
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आज गाँधी जी की १५० वीं वर्षगाँठ है। उनकी याद में बहुत कुछ कहा जा रहा है, आयोजन किये जा रहे हैं, लेकिन वे अनपेक्षित नहीं कहे जा सकते। उनकी कर्मशीलता , नेतृत्व के सामने इसे आंकना समीचीन न होगा। अस्तु !
गांधी दक्षिण अफ्रीका से वापस आए और निकल पड़े भारत दर्शन की यात्रा पर। न केवल भारत की थाह लेनी थी उन्हें, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा भारत को समझना और अंतर्मन में पिरो लेने का यह एक ईमानदार प्रयास था, जिसने जीवन को कुछ ऐसा मंथा कि आगे की राह बन सकी। इस पथ को मुख्यतः तीन कारकों ने बनाया और आगे भी प्रशस्त करते गए : १). सनातन धर्मी, वैष्णव संस्कारों के कारण राम पर अगाध श्रद्धा और विश्वास, २). सत्य का संधान, और, ३). भारत के जनमानस की रचनात्मकता और रचनाधर्मिता। ये तीन हमेशा गांधी के साथ रहे, हर विचार में, हर कर्म में। जिसे लोगों ने जिद कहा उसमें भी। शायद, इन तीनों के प्रति ईमानदारी ने ही उन्हें राम राज्य की परिकल्पना दी। हमारा भविष्य का भारत कैसा, क्या होगा यह परिभाषा उन्होंने ही राजनीतिक-सामाजिक फलक में आधुनिक भारत में संभवतः सबसे पहले दी। एक उदार, सजग, ईमानदार, सम्वेदनशील नेतृत्व इस से बेहतर और क्या दे सकेगा ?
और, आज गांधी एक ऐसे आश्रय है जहां हर तर्क, दोष और अंत में शांति को हम ला पटकते हैं, दशकों से। कोसने को कोई न मिले, तो गांधी तो हैं ही। पर, थाह भी उनकी शरण में ही पाता है हिन्दुस्तानी आदमी। मजे की बात है कि इस शख्स के जन्म के १५० वर्ष पूरे होने पर भी चर्चा चल रही है, भारत और विदेश में भी अगणित लोगों, आन्दोलनों के प्रेरणा-स्रोत हैं वे। वह भी उनके चले जाने के ७१ साल बाद ! उनकी प्रासंगिकता को चुनौती देने से पूर्व अपने ही समय में, अपनों के बीच ज़रा हम अपनी प्रासंगिकता टटोल कर देख लें। किमधिकं !
विनत श्रद्धान्जलि ! नमन !!
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आपका इस संदर्भ में यह निष्कर्ष निकालना कि ” गांधी जी की हत्या एक हिंदुत्ववादी ने ही की थी” – स्वयं में बहुत कष्टप्रद है। समाज जीवन के विभिन्न पक्षों में तब तक संवाद न सध सकेगा जब तक, स्वयं को गांधी – विचार के प्रखर वाहक इतर पक्षों पर संदेह और वह भी, असंवेदनशील बातों को आगे का संवाहक बना कर रखेंगे और, स्वयं को हिंदुत्व का पुरोधा मानने वाले गांधी को विभाजन और तत्कालीन हिंसा का दोष देंगे ! हमें इन्हें पीछे छोड़ एक नवीन प्रारम्भ करना होगा और उस सम्पूर्ण प्रयास को गांधी सा संबल ही वात्सल्यपूर्ण सहारा दे सकेगा। गांधी शांति प्रतिष्ठान की इसमें रचनात्मक भूमिका हो सकती है। ( संभवतः ) वर्ष २०१० में एक बार श्री अनुपम मिश्र से एक भेंट में इस बात पर चर्चा हुई तो, गंभीरता से बात सुनते हुए इससे सहमति दिखाई, और, फिर न जाने कितने प्रसंग भी कहे और इस मार्ग में कठिनताओं की भी चर्चा की। तब यह लगा कि अगर अनुपम जी जैसे व्यक्तित्व के ज़हन में यह बात है तो कोई न कोई रचनात्मक शुरुआत अवश्य होगी। पर, यह देश ठहरा अभागा। नौ दिन चले अढ़ाई कोस ! प्रकाश में इतना भी हो जाता तो, मन के किसी कोने में थोड़ा संतोष होता !
इति।
— अनिल
२६ दिसंबर , २०२०